॥ मंगलाचरण - किष्किन्धाकाण्ड ॥

॥ श्लोक ॥
कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौ
शोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ।
मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौ हितौ
सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः॥ (१)
भावार्थ:- जिनका नीले कमल के समान श्यामवर्ण और कुन्द के फूलों के समान गौरवर्ण है, जो अत्यंत बलवान्‌ और विज्ञान के धाम हैं, जिनकी छबि अति शोभायमान है, जो श्रेष्ठ धनुर्धर हैं, जो गौ एवं ब्राहमणो के प्रिय और वेद श्रुतियों के वन्दनीय हैं, जो अपनी आत्म-माया से मनुष्य रूप धारण किए हुए रघुकुल में श्रेष्ठ हैं, जो समस्त धर्मों के हितकारी हैं और जो श्रीसीता जी की खोज में भ्रमण कर रहें हैं ऎसे श्रीराम जी और श्रीलक्ष्मण जी निश्चय ही हमें अपनी भक्ति प्रदान करेंगे। (१)

ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययं
श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा।
संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं
धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम्‌॥ (२)
भावार्थ:- धन्य हैं वह लोग जो वेद रूपी समुद्र से उत्पन्न, कलियुग के पापों को सर्वथा नष्ट कर देने वाले, अविनाशी श्रीशंकर जी के सुंदर मुख पर चंद्रमा के समान सदा शोभायमान, जन्म-मृत्यु रूपी भवरोग की औषधि, संसार को सुख प्रदान करने वाले और श्रीजानकी जी के जीवन स्वरूप श्रीराम नाम रूपी अमृत का निरंतर रसपान करते रहते हैं। (२)

॥ सोरठा ॥
मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खान अघ हानि कर।
जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न ॥ (१)
भावार्थ:- मुक्ति की जन्मभूमि, ज्ञान की खान और समस्त पापों का नाश करने वाली उस काशी का ध्यान क्यों न किया जाये? जहाँ शकंर जी पार्वती के संग सदैव विराजते हैं। (१)

जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय।
तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस॥ (२)
भावार्थ:- जिस भीषण हलाहल विष से सभी देवतागण जल रहे थे उस विष का जिन्होंने स्वयं पान कर लिया था, अरे मूर्ख मन! तू उन शंकर जी को क्यों नहीं भजता है? उनके समान अन्य कौन कृपालु है? (२)

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥