॥ आसुरी स्वभाव वालों की वंदना ॥


॥ चौपाई ॥
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥ (१)
भावार्थ:- अब मैं शुद्ध मन-भाव से सभी असुर स्वभाव वाले मनुष्यों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना किसी कारण के दूसरों को कष्ट पहुँचाने वाले हैं। जिनके दृष्टि में दूसरों की हानि ही उनके लिये लाभ होती है, जिनको दूसरों की बर्बादी में खुशी मिलती है और दूसरों उन्नति से दुख मिलता हैं। (१)

हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥ (२)
भावार्थ:- जो विष्णु और शिव की कीर्ति रूपी चन्द्रमा के लिए राहु के समान हैं, और दूसरों की बिना किसी कारण के कष्ट पहुँचाने सहत्रबाहु के समान हैं। जो दूसरों के दोषों को हजारों आँखों से देखते हैं, जिनके लिये दूसरों का लाभ घी के समान और उनका मन मक्खी के समान होता है। (२)

तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥ (३)
भावार्थ:- जिनका तेज अग्नि के समान और क्रोध यमराज के समान होता हैं, जिनके पाप और अवगुण रूपी धन, कुबेर के धन के समान होते हैं और जिनकी उन्नति सभी का अहित करने के लिए केतु के समान होती है, ऎसे लोगों का कुम्भकरण के समान सोते रहना ही सभी के लिये हितकारी होता है। (३)

पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥ (४)
भावार्थ:- जिस प्रकार ओले खेती का नाश करके स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार वह अकारण ही दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए स्वयं के शरीर को नष्ट कर लेते हैं। मैं ऎसे दुष्टों को शेषनाग जी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो हजारों मुखों से दूसरों के दोषों का वर्णन करते हैं। (४)

पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥ (५)
भावार्थ:- जिस प्रकार भगवान का गुणगान सुनने राजा पृथु ने भगवान से दस हजार कान माँगे थे, उन्ही के समान समझकर मैं उनको पुन: प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानों से दूसरों की निन्दा को सुनते हैं। अब में देवताओं के राजा इन्द्र के समान समझकर विनय करता हूँ जिनके लिये मदिरा अमृत के समान हितकारी मालूम देती है। (५)

बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥ (६)
भावार्थ:- जिनको सदैव कठोर शब्द वज्र के समान प्यारे लगते हैं और जिनको हजारों आँख से दूसरों के दोष ही दिखलाई देते हैं। (६)

॥ दोहा ॥
उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥ (४)
भावार्थ:- दुष्ट लोगों की यही स्वभाव होता है जो मित्रों और शत्रुओं के प्रति उदासीन होते हैं और उनकी प्रशंसा सुनकर जलते हैं। यह जानकर भी अनेक लोग उनसे दोनों हाथ जोड़कर प्रेम-पूर्वक प्रार्थना करते हैं। (४)

॥ चौपाई ॥
मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥ (१)
भावार्थ:- मैं अपनी ओर से उनसे कितनी भी प्रार्थना करूँ लेकिन वह अपने लाभ के लिये भी कभी नहीं सुधरेंगे। जिस प्रकार कौओं को कितने भी प्रेम से पालने पर भी वह मांस को खाना कभी नहीं छोड़ते हैं। (१)

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥