॥ मंगलाचरण - अयोध्याकाण्ड ॥



॥ श्लोक ॥
यस्यांके च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्री शंकरः पातु माम्‌॥ (१)
भावार्थ:- जिनकी गोद में हिमायल की पुत्री पार्वती जी, मस्तक पर गंगा जी, ललाट पर दूज का चन्द्रमा, कंठ में हलाहल विष और वक्षः स्थल पर सर्पराज शेष जी सुशोभित हैं, जो भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ, सर्वेश्वर, भक्तों के पापहर्ता, सर्वव्यापक, कल्याण स्वरूप, चन्द्रमा के समान श्वेत वर्ण श्रीशंकर जी सदा मेरी रक्षा करें। (१)

प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मंजुलमंगलप्रदा॥ (२)
भावार्थ:- राजा रघु के कुल को आनंद देने वाले श्रीरामचन्द्र जी के मुखारविंद की जो शोभा राज्याभिषेक की बात सुनकर न तो प्रसन्नता को प्राप्त हुई और न वनवास के दुःख से मलिन हुई, ऎसे मुखकमल की छबि मेरे लिए सदैव मंगलकारी हो। (२)

नीलाम्बुजश्यामलकोमलांग सीतासमारोपितवामभागम्‌।
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्‌॥ (३)
भावार्थ:- नीले कमल के समान श्याम और अति कोमल जिनके अंग हैं, श्रीसीता जी जिनके वाम भाग में विराजमान हैं और जिन्होने हाथों में अमोघ बाण और सुंदर धनुष धारण किया हुआ है, उन रघुवंश के स्वामी श्रीरामचन्द्र जी को मैं प्रणाम करता हूँ। (३)

॥ दोहा ॥
श्री गुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥ (१)
भावार्थ:- श्रीगुरु जी के चरण कमलों की रज से अपने मन रूपी दर्पण को साफ करके मैं श्रीरघुनाथ जी के उस निर्मल यश का वर्णन करता हूँ, जो चारों फलों धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को देने वाले हैं। (१)

॥चौपाई ॥
जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥
भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥ (१)
भावार्थ:- जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आये हैं, तब से अयोध्या में नित्य नए मंगल गान हो रहे हैं। चौदह भवन रूपी बड़े भारी खण्ड शिलाओं पर पवित्र बादल आनन्द रूपी जल की बर्षा कर रहे हैं। (१)

रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥
मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥ (२)
भावार्थ:- ऋद्धि-सिद्धि और सम्पत्ति रूपी सुहावनी नदियाँ उमड़-उमड़ कर अयोध्या रूपी समुद्र में आ मिलीं हैं। नगर के स्त्री-पुरुष शुभ वर्ण के मणियों के समूह के समान हैं, जो सभी प्रकार से पवित्र, अमूल्य और सुंदर हैं। (२)

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ (३)
भावार्थ:- अयोध्या नगरी का ऐश्वर्य का वर्णान ही नहीं किया जा सकता है, ऐसा जान पड़ता है, मानो ब्रह्मा जी की कारीगरी बस इतनी ही है। श्रीरामचन्द्र जी के मुखचन्द्र की छटा देखकर सभी नगरवासी हर प्रकार से सुख की अनुभूति कर रहे हैं। (३)

मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥
राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥ (४)
भावार्थ:- सब माताएँ और सखी-सहेलियाँ अपनी मनोरथ रूपी बेल को फलित होती हुई देखकर आनंदित हो रही हैं। श्रीरामचन्द्र जी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को देख-सुनकर राजा दशरथ जी अत्यधिक आनंदित हो रहे हैं। (४)

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥