॥ राम भक्तिमयी कविता की महिमा ॥


॥ चौपाई ॥
आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥ (१)
भावार्थ:- सभी चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सब से भरे हुए इस सारे संसार को श्री सियाराम के समान जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। (१)

जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाहीं॥ (२)
भावार्थ:- आप सभी मिलकर मुझे अपना तुच्छ सेवक जानकर सभी छल को छोड़कर कृपा करें क्योंकि मुझे अपने बुद्धि और बल पर भरोसा नहीं है, इसीलिए मैं आप सभी से विनती करता हूँ। (२)

करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राउ॥ (३)
भावार्थ:- मैं श्री रघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि अति सूक्ष्म है और श्री रामजी का चरित्र अनन्त है, इसके लिए मुझे एक मात्र भी उपाय नहीं सूझ रहा है, मेरे मन और बुद्धि भिक्षुक के समान हैं, किन्तु मेरा मनोरथ राजा के समान है। (३)

मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥ (४)
भावार्थ:- मेरी बुद्धि तो अत्यन्त निम्न श्रेणी की है और रूचि बड़ी उच्च श्रेणी की है, मेरी कामना तो अमृत प्राप्त करने की है, लेकिन संसार में तो छाछ भी नहीं है, सज्जनों लोग मेरी इस ढिठाई को क्षमा करें और बच्चे के समान मेरे वचनों को मन लगाकर प्रेमपूर्वक सुनें। (४)

जौं बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥ (५)
भावार्थ:- जिस प्रकार बच्चा जब तोतली भाषा में बोलता है, तो उसके माता-पिता बच्चे की तोतली भाषा को सुनकर प्रसन्न होते हैं, किन्तु क्रूर, कुटिल स्वभाव वाले और बुरे विचार वाले व्यक्ति जो दूसरों के दोषों को ही देखकर हँसी उड़ाते हैं। (५)

निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥ (६)
भावार्थ:- अपनी कविता सुन्दर हो या अत्यन्त नीरस हो किसको अच्छी नहीं लगती है, किन्तु जो दूसरों की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम व्यक्ति संसार में अधिक नहीं हैं। (६)

जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हि जल पाई॥
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥ (७)
भावार्थ:- संसार में नदियों के समान स्वभाव वाले व्यक्ति बहुत अधिक होते हैं, जो अपनी उन्नति से ही प्रसन्न होते हैं जैसे नदियां अपने ही जल को पाकर बाढ़ का रूप धारण कर लेती हैं। समुद्र के समान तो कोई एक बिरला ही सज्जन व्यक्ति होता है, जो दूसरों की उन्नति को देखकर प्रसन्न होता है जैसे पूर्णिमा के चाँद को देखकर समुद्र उमड़ पड़ता है। (७)

॥ दोहा ॥
भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास॥ (८)
भावार्थ:- मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी है, परन्तु मुझे एक विश्वास है कि इसे सुनकर सभी सज्जन स्वभाव वाले व्यक्ति सुख पायेंगे और दुष्ट स्वभाव वाले व्यक्ति मज़ाक उड़ायेंगे। (८)

॥ चौपाई ॥
खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥
हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥ (१)
भावार्थ:- दुष्ट स्वभाव वाले व्यक्तियो के मज़ाक उड़ाने से तो मेरा हित ही होगा, क्योंकि मधुर कण्ठ वाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहते हैं। जैसे मेंढक और पपीहे को देख बगुले हँसते हैं, वैसे ही दुष्ट स्वभाव वाले व्यक्ति सज्जन स्वभाव वालों की कही गयी निर्मल वाणी पर हँसते हैं। (१)

कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥
भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जो हँसें नहिं खोरी॥ (२)
भावार्थ:- जिन व्यक्तियों को न तो कविता में रस मिलता है और न ही श्री रामचन्द्र जी के चरणों में प्रेम होता है, उनके लिए भी यह सुखद हास्य रस प्रदान करेगी। एक तो यह भाषा ही ऎसी है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है, इसलिये यह हँसने के योग्य ही है, इस पर हँसने पर भी उन्हें कोई दोष नहीं लगेगा। (२)

प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी॥
हरि हर पद रति मति न कुतर की। तिन्ह कहँ मधुर कथा रघुबर की॥ (३)
भावार्थ:- जिन्हें न तो प्रभु के चरणों में प्रेम होता है और न अच्छी समझ ही होती है, उनको यह कथा सुनने में नीरस ही लगेगी। जिनकी श्री हरि भगवान विष्णु और श्री हर भगवान शिव के चरणों में प्रीति होती है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करने वाली नहीं होती है उन्हें श्री रघुनाथजी की यह कथा मधुर ही लगेगी। (३)

राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥ (४)
भावार्थ:- सज्जन व्यक्ति इस कथा को अपने हृदय में श्री रामजी की भक्ति से सुसज्जित समझेंगे और सुंदर वाणी से सराहना करते हुए सुनेंगे। मैं न तो कोई कवि हूँ, न वाणी में ही कुशल हूँ, मैं तो सभी कलाओं से और सभी विद्याओं से अज्ञान हूँ। (४)

आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥ (५)
भावार्थ:- अनेक प्रकार के अक्षर, अर्थ, अलंकार और छंदो में अनेक प्रकार की विधियां होती है, भावों और रसों में असंख्य भेद होते हैं, और कविता में विविध प्रकार के गुण-दोष भी होते हैं। (५)

कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥ (६)
भावार्थ:- मुझमें कवि के समान कल्पना-शक्ति वाली एक भी बात नहीं है, मैं यह कोरे कागज पर लिखकर सत्य कहता हूँ। (६)

॥ दोहा ॥
भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक॥ (९)
भावार्थ:- मेरी यह रचना सब गुणों से रहित होते हुए भी इसमें विश्व-विख्यात एक गुण है, जिसे विचार करके सुनने मात्र से बुद्धिमान व्यक्ति का स्वभाव निर्मल और विवेकशील हो सकेगा। (९)

॥ चौपाई ॥
एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥ (१)
भावार्थ:- इसमें उद्धार करने वाला श्री रघुपति राघव का नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेदो की श्रुतियों का सार है, परम मंगलकारी है और सभी अमंगल को हरने वाला है, जिस नाम को पार्वती जी सहित भगवान शिव जी सदैव जपते हैं। (१)

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोउ॥
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी॥ (२)
भावार्थ:- किसी भी महान कवि के द्वारा रची हुई अति विलक्षण रचना भी राम नाम के बिना शोभा नहीं पाती है। जिस प्रकार चन्द्रमा के समान मुख वाली सभी प्रकार से सुसज्जित सुन्दर स्त्री बिना वस्त्र के शोभा नहीं पाती है। (२)

सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥ (३)
भावार्थ:- जो कवि नही है उसके द्वारा सभी गुणों से रहित लिखी हुई कविता में यदि राम नाम लिखा होता है, तो उसे बुद्धिमान लोग आदर-सहित कहते और सुनते हैं, क्योंकि संत लोग भंवरे की तरह होते जो केवल सार को ही ग्रहण करते हैं। (३)

जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रगट एहि माहीं॥
सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा॥ (४)
भावार्थ:- जबकि मेरे द्वारा लिखी इस कविता में एक भी रस नहीं है, इसमें श्रीराम जी की आभा प्रकट है। मेरे मन में यही एक भरोसा है कि अच्छी संगति से हर किसी को प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। (४)

धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥ (५)
भावार्थ:- सुगंधित वायु की संगति पाकर धुआँ भी अपने कड़वे सहज स्वभाव को त्याग देता है, मेरे द्वारा लिखी रचना भले ही सुन्दर न हो, परन्तु इसमें संसार का कल्याण करने वाली राम कथा रूपी उत्तम वस्तु का वर्णन अवश्य किया गया है। (५)

॥ छंद ॥
मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥

प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी।
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥
भावार्थ:- तुलसी दास जी कहते हैं कि श्री रघुनाथ जी की कथा सभी का कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने वाली है। यह कुरुप कविता पतित-पावन गंगा नदी की धारा के समान टेड़ी-मेड़ी है। प्रभु श्रीरघुनाथ जी की सुंदर संगति से यह कविता सुंदर और सज्जनों के मन को भाने वाली हो जाती है, जिस प्रकार शमशान की अपवित्र राख भी श्रीमहादेव जी के अंग की संगति पाकर स्मरण करने मात्र से पवित्र करने वाली हो जाती है।

॥ दोहा ॥
प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।
दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥ (१० क)
भावार्थ:- श्रीराम जी के नाम की संगति से मेरी यह रचना सभी को अत्यन्त प्रिय लगेगी। जिस प्रकार मलय पर्वत की संगति से लकड़ी भी चंदन बनकर वंदनीय हो जाती है, तब लकड़ी की निरर्थकता का कोई विचार नहीं करता है। (१०क)

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥ (१० ख)
भावार्थ:- जिस प्रकार काली गाय का दूध उज्ज्वल और बहुत गुणकारी समझकर सब लोग उसे पीते हैं, उसी प्रकार देहाती भाषा में होने पर भी श्रीसीताराम जी के नाम का गुणगान बुद्धिमान लोग बड़े उत्साह से गायेंगे और सुनेंगे। (१०ख)

॥ चौपाई ॥
मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥ (१)
भावार्थ:- जिस प्रकार मणि, माणिक और मोतीयों की शोभा होती है लेकिन साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वह शोभायमान नहीं होती है, जबकि राजा के मुकुट और तरुण स्त्री के शरीर पर सभी प्रकार से शोभायमान होते हैं। (१)

तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥ (२)
भावार्थ:- इसी प्रकार बुद्धिमान लोग कहते हैं कि किसी भी कवि की कविता उत्पन्न कहीं होती है और शोभा अन्य-अन्य जगह पर पाती है। भक्ति के कारण सरस्वती जी सुनते ही ब्रह्म-लोक को छोड़कर दौड़ी हुई आती हैं। (२)

राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥ (३)
भावार्थ:- दौड़ लगाने की थकान केवल रामचरित रूपी सरोवर में बिना नहाये दूर नहीं हो सकती है, जो करोड़ों अन्य उपाय करने से भी दूर नहीं हो सकती है। कवि और पण्डित अपने हृदय में विचार करके कलियुग के पापों को हरने वाले श्रीहरि के यश का गुणगान करते हैं। (३)

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥ (४)
भावार्थ:- मनुष्यों के द्वारा सांसारिक गुणगान करने से विधा की देवी सरस्वती जी सिर पीटकर पछताने लगती हैं। बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती जी को स्वाति नक्षत्र के समान कहते हैं। (४)

जौं बरषइ बर बारि बिचारू। हो हिं कबित मुकुतामनि चारू॥ (५)
भावार्थ:- जब मन में श्रेष्ठ विचार रूपी जल बरसता है तब यह मुक्ति स्वरूप कविता मणि के समान सुंदर लगने लगती है। (५)

॥ दोहा ॥
जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥ (११)
भावार्थ:- कविता रूपी मणियों को बुद्धिमान लोग राम चरित्र रूपी सुंदर धागे में पिरोकर, सज्जन लोग अपने निर्मल हृदय में जब धारण करते हैं, तो अत्यन्त अनुराग के रूप में यह मणियाँ शोभायमान होती हैं। (११)

॥ चौपाई ॥
जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़े॥ (१)
भावार्थ:- जिन लोगों का जन्म घोर कलियुग में होता हैं, उनके कर्म कौए के समान होते हैं और वेष हंस के समान होता है, ऎसे लोग वेदों के बताये मार्ग को छोड़कर गलत मार्ग पर चलते हैं, वह तो पाखण्ड की मूरत और कलियुग में पाप से भरे घट के समान होते हैं। (१)

बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरम ध्वज धंधक धोरी॥ (२)
भावार्थ:- जो मनुष्य श्रीराम जी के भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो धन के लोभी, क्रोधी और कामनाओं के गुलाम हैं। जो मसखरे हैं, धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले अहंकारी हैं और छल-कपट के बोझ को ढोने वाले हैं, संसार के ऐसे लोगों की गिनती में सबसे पहला मेरा नाम है। (२)

जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ ॥
ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥ (३)
भावार्थ:- यदि मैं अपने सभी अवगुणों का वर्णन करूँगा तो कथा आगे नहीं बढ़ पायेगी। इसलिये मैंने अपने बहुत कम अवगुणों का वर्णन किया है, बुद्धिमान लोग थोड़े ही में समझ जायेंगे। (३)

समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥ (४)
भावार्थ:- मेरी अनेकों प्रकार की विनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर मुझे दोष नहीं देगा। इतने पर भी जो लोग शंका करेंगे, वह लोग तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और ज़ड़-बुद्धि वाले ही होंगे। (४)

कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥ (५)
भावार्थ:- मैं न तो कवि हूँ, न ही बुद्धिमान कहलाता हूँ, अपनी बुद्धि के अनुसार ही श्रीराम जी के गुणगान करता हूँ। श्रीरघुनाथ जी के चरित्र की कथा अनन्त है, मेरी बुद्धि संसार में आसक्ति वाली है। (५)

जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥ (६)
भावार्थ:- जिस प्रकार हवा से सुमेरु जैसे पर्वत उड़ जाते हैं, उस हवा के सामने रूई की क्या मिसाल होगी। श्रीराम जी की प्रभुता असीम हैं, इस कथा को रचने में मेरा मन बहुत सकुचा रहा है। (६)

॥ दोहा ॥
सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥ (१२)
भावार्थ:- सरस्वती जी, शेषनाग जी, शिव जी, ब्रह्मा जी, शास्त्र, वेद और पुराण भी सब 'नेति-नेति' कहकर सदैव जिनका गुणगान किया करते हैं। (१२)

॥ चौपाई ॥
सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥
तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥ (१)
भावार्थ:- प्रभु श्रीरामचन्द्र जी की प्रभुता को सभी जानते हैं, जबकि कहे बिना कोई नहीं रह पाता है। संसार में भजन का प्रभाव का कारण वेदों में अनेकों भाषा और अनेक प्रकार से बताया गया है। (१)

एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥ (२)
भावार्थ:- प्रभु एक हैं, जिनमें कोई कामना नहीं होती है, जिनका कोई स्वरूप नहीं है, जिनका कोई नाम नहीं है, जो अजन्मा है, जो सच्चिदानन्द और परमधाम हैं, और जो सब जगह रहते हैं एवं जो विश्व स्वरूप हैं, उन्हीं भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके अनेकों प्रकार की लीला की है। (२)

सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥
जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥ (३)
भावार्थ:- भगवान की लीला केवल भक्तों के हित के लिए ही होती है, क्योंकि भगवान परम-कृपालु हैं और शरणागत भक्तों से अतिशय प्रेम करते हैं। जिनकी भक्तों के प्रति ममता रहती हैं और भक्तों के बहुत प्रिय हैं, उनकी दया और करुणा का वर्णन कोई नही कर सकता है। (३)

गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥
बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥ (४)
भावार्थ:- प्रभु श्रीरघुनाथ जी दीनों पर दया करने वाले दीन-वत्सल, सरल स्वभाव वाले सर्व-शक्तिमान और सभी के स्वामी हैं। बुद्धिमान लोग यह जानकर श्रीहरि के गुणों का वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र और उत्तम फल पाकर अपने जीवन को सफल बनाते हैं। (४)

तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥
मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥ (५)
भावार्थ:- उसी शक्ति से मैं श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर झुकाकर श्री रघुनाथजी के गुणों की कथा कहता हूँ। इसी विचार से अनेकों मुनियों ने पहले श्रीहरि की महिमा गायी है, उन्ही भाई लोगो के बताये मार्ग पर चलकर मेरा भी रास्ता सुगम हो जायेगा। (५)

॥ दोहा ॥
अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।
चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥ (१३)
भावार्थ:- जो अत्यन्त बड़ी श्रेष्ठ नदियाँ हैं, यदि राजा उन पर पुल बाँध देता है, तो अत्यन्त छोटी चींटी भी उस पुल पर चढ़कर बिना किसी परिश्रम के नदी को पार कर जाती हैं। (१३)


॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥