॥ संत और असंत मनुष्यों वंदना ॥



॥ चौपाई ॥
बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥ (२)
भावार्थ:- मैं देवता स्वभाव वाले मनुष्यों (संत) और आसुरी स्वभाव वाले मनुष्यों (असंत) के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों की संगति ही दुखदायी होती है लेकिन दोनों के अन्तर का कुछ वर्णन किया गया है। संत का बिछुड़ना प्राण निकलने के समान दुखदायी होता हैं और असंत का मिलना अत्यन्त दुखदायी होता हैं। (२)

उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥ (३)
भावार्थ:- संत और असंत संसार में एक साथ उत्पन्न होते हैं लेकिन कमल और जोंक की तरह दोनों के गुण अलग-अलग होते हैं। संत पुरुष अमृत के समान होते हैं और असंत पुरुष मदिरा के समान होते हैं लेकिन दोनों को उत्पन्न करने वाला संसार रूपी सागर एक ही है। (३)

भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥ (४)

गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥ (५)
भावार्थ:- दोनों अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही भलाई-बुराई और कीर्ति-अपकीर्ति रूपी सम्पत्ति प्राप्त करते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गंगाजी एवं साधु और ज़हर, अग्नि, कलियुग रूपी पाप की नदी एवं हिंसक पशु, इनके गुण और अवगुण सभी जानते हैं लेकिन जिसका जैसा स्वभाव होता है उसको वैसा ही अच्छा लगता है। (४,५)

॥ दोहा ॥
भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥ (५)
भावार्थ:- अच्छा व्यक्ति अच्छाई को ही ग्रहण करता है और बुरा व्यक्ति बुराई को ही ग्रहण करता है, जिस प्रकार अमृत से अमरता प्राप्त होती है और ज़हर से मृत्यु प्राप्त होती है। (५)

॥ चौपाई ॥
खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥ (१)
भावार्थ:- दुष्टों के पापों और दुर्गुणों की और सज्जनों के गुणों की कथायें समस्त भय से मुक्त करने के लिये कभी न समाप्त होने वाले समुद्र के समान हैं। इन्हीं कथाओं में कुछ गुण और दोषों का वर्णन किया गया है, क्योंकि बिना पहिचाने गुणों को ग्रहण नहीं किया जा सकता है और अवगुणों का त्याग नहीं किया जा सकता है। (१)

भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥ (२)
भावार्थ:- सभी अच्छाई और बुराई तो ब्रह्मा जी के द्वारा ही उत्पन्न किये गये हैं, लेकिन गुण और दोष को तो वेदों के द्वारा अलग-अलग गाये गये है। इतिहास, वेद और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की इस सृष्टि में गुण और अवगुण दोनों ही की भरमार है। (२)

दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥ (३)

माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥ (४)

सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥ (५)
भावार्थ:- दुख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, जीवन-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, लक्ष्य-अलक्ष्य, राजा-रंक, शरीर-आत्मा, पवित्र-अपवित्र, मरुतगण-असुरगण, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग के गुणों और दोषों का वेदों में अलग-अलग वर्णन किया गया हैं। (३,४,५)

॥ दोहा ॥
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥ (६)
भावार्थ:- भगवान ने इस संसार की रचना जड़ और चेतन रूप में गुणों और दोषों से युक्त की है। संत पुरुष हंस के समान होते हैं जिस प्रकार हंस जल मिश्रित दूध में से दूध को ही ग्रहण करता है उसी प्रकार संत पुरुष गुण-दोष से मिश्रित इस संसार से गुणों को ग्रहण करते हैं। (६)

॥ चौपाई ॥
अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥ (१)
भावार्थ:- भगवान जब मनुष्य को हंस रूपी विवेक देते हैं, तभी मनुष्य अपने दोषों का त्याग करके गुणों को ग्रहण कर पाता है। समय, स्वभाव और पूर्व जन्मों के कर्म के कारण साधु पुरुष भी माया के वश में होकर लक्ष्य से भटक जाते हैं। (१)

सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥ (२)
भावार्थ:- जो भगवान के भक्त होते हैं वह अपनी भूल को सुधार लेते हैं वह अपने दुख और दोषों को मिटाकर निर्मल होकर सभी यश प्रदान करते हैं। कभी-कभी दुष्ट लोग भी अच्छे लोगों की संगति पाकर भलाई किया करते हैं, परन्तु उनका दोषयुक्त स्वभाव कभी नहीं मिटता है। (२)

लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥ (३)
भावार्थ:- जो लोग साधु का भेष धारण करके संसार के लोगों को ठगते हैं जिनके भेष को देखकर संसार उनको पूजता है, परन्तु अंत में एक दिन उनका कपट सबके सामने आ ही जाता है, जिस प्रकार कालनेमि, रावण और राहु का कपट सबके सामने आया था। (३)

किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥ (४)
भावार्थ:- साधु पुरुष यदि बुरा भेष भी धारण कर लेते हैं तो भी उन्हे सम्मान प्राप्त होता है, जिस प्रकार जामवंत और हनुमान्‌ जी को संसार जानता है। बुरे लोगों की संगति से हानि और अच्छे लोगों की संगति से लाभ प्राप्त होता है, वेदों में वर्णित इस बात को सभी लोग जानते हैं। (४)

गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥ (५)
भावार्थ:- जिस प्रकार हवा का संग पाकर धूल आकाश की ओर उठ जाती है और कीचड़ की संगति पाकर शुद्ध जल भी गंदा हो जाता है उसी प्रकार संत पुरुषों के घर का तोता राम-राम बोलना सीख जाता हैं और दुष्ट पुरुषों के घर का तोता गाली बोलना सीख जाता हैं। (५)

धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥ (६)
भावार्थ:- धुँआ बुरी संगति के कारण काला होता है, वही धुँआ स्याही बनकर पुराणों को लिखने के काम में आता है, और वही धुआँ जल, अग्नि और वायु की संगति से बादल बनकर संसार को जीवन प्रदान करता है। (६)

॥ दोहा ॥
ग्रह भेजष जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥ (७ क)
भावार्थ:- जिस प्रकार ग्रह, जड़ी-बूटी, जल, वायु और वस्त्र भी बुरी संगति और अच्छी संगति से बुरी वस्तु और अच्छी वस्तु बन जाते हैं, उसी प्रकार सज्जन पुरुष इस बात को जानते हैं। (७ क)

सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥ (७ ख)
भावार्थ:- जिस प्रकार शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष दोनों में अन्धकार और प्रकाश समान ही रहता है, परन्तु विधाता ने इनके नाम में अन्तर कर दिया है, उसी प्रकार चन्द्रमा को घटाने वाला और बढ़ाने वाला समझकर संसार ने एक को कीर्ति देने वाला और दूसरे को अपकीर्ति देने वाला समझ लिया। (७ ख)

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥ (७ ग)
भावार्थ:- इस संसार में जो भी जड़ और चेतन जीव हैं, उन सभी को भगवान राम का स्वरूप जानकर मैं उन सभी के चरण कमलों की सादर दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ। (७ग)

देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥ (७ घ)
भावार्थ:- देवता, असुर, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गंधर्व, किन्नर और निशाचर सभी को मैं प्रणाम करता हूँ, सभी से मैं कृपा करने की प्रार्थना करता हूँ। (७घ)

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥