॥ श्लोक ॥
मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं
वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्।
मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शंकरं
वंदे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्री रामभूपप्रियम्॥ (१)
भावार्थ:- जो धर्म रूपी वृक्ष की ज़ड़ के समान हैं, जो विवेक रूपी समुद्र को आनंद देने वाले पूर्ण चन्द्र के समान हैं, जो वैराग्य रूपी कमल को विकसित करने वाले सूर्य के समान हैं, जो पाप रूपी घोर अंधकार को मिटाने वाले हैं, जो तीनों तापों को हरने वाले हैं। जो मोह रूपी बादलों के समूह को छिन्न-भिन्न करने वाले हैं, जो आकाश में पवन के समान हैं, जो ब्रहमा जी के पुत्र और समस्त कलंक को मिटाने वाले हैं, जो महाराज श्रीरामचन्द्र जी के अति प्रिय हैं, उन श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ। (१)
सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुंदरं
पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्।
राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं
सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे॥ (२)
भावार्थ:- जिनका शरीर जल पूरित मेघों के समान सुंदर आनंदघन सदृश्य है, जो सुंदर पीत वस्त्र धारण किए हुए हैं, जिनके हाथों में धनुष-बाण और कमर में तुणीर सुशोभित है। जिनके कमल के समान विशाल नेत्र हैं, जिनके मस्तक पर जटा सुशोभित हैं, जो सीता जी और लक्ष्मण जी के साथ वन में भ्रमण कर रहें हैं ऎसे श्रीरामचन्द्र जी का मैं निरन्तर स्मरण करता हूँ। (२)
॥ सोरठा ॥
उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति।
पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति॥ (१)
भावार्थ:- शंकर जी कहते हैं:- हे उमा! श्रीराम जी के गुण अत्यन्त दिव्य हैं, इन गुणों को जानकर विद्वान और मुनिजन संसार से वैराग्य धारण करते हैं, लेकिन जो मनुष्य भगवान से विमुख होते हैं और जो मनुष्य धर्म का आचरण नहीं करते हैं, ऎसे मूढ़ अज्ञानीजन इन गुणों को सुनकर मोहग्रस्त हो जाते हैं। (१)
॥ चौपाई ॥
पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई॥
अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन॥ (१)
भावार्थ:- अयोध्या नगर वासियों और भरत जी के अनुपम प्रेम का मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार वर्णन किया है। अब मैं देवताओं, मनुष्यों और मुनियों के मन में वास करने वाले प्रभु श्रीरामचन्द्र जी के अत्यन्त पवित्र चरित्र का गुणगान करता हूँ, जो कि वन में नर लीला कर रहे हैं। (१)
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥