॥ श्री सियाराम सहित भक्तों की वंदना ॥


॥ चौपाई ॥
बंदउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥
प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥ (१)
भावार्थ:- मैं अति पावन श्री अयोध्यापुरी और कलियुग के पापों का नाश करने वाली पवित्र सरयू नदी की वन्दना करता हूँ, मैं अवधपुरी के उन नर-नारियों को प्रणाम करता हूँ, जिन पर प्रभु श्री रामचन्द्रजी की ममता कम नहीं है। (१)

सिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए॥
बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥ (२)
भावार्थ:- मैं सीताजी की निंदा करने वाले जो समस्त पापों से शोक-मुक्त हो गये है जिन्हे प्रभु ने अपने धाम में बसा लिया है, और कौशल्या रूपी पूर्व दिशा (श्रीरामचन्द्र जी रूपी सूर्य को प्रकट करने वाली कोसल्या माता) की वन्दना करता हूँ, जिनकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही है। (२)

प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥
दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी॥ (३)

करउँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता॥ (४)
भावार्थ:- कौशल्या रूपी पूर्व दिशा से विश्व को सुख देने वाले और दुष्ट रूपी कमलों के लिए ओस के समान चन्द्र्मा के सदृश सुन्दर श्रीरामचन्द्र जी प्रकट हुए, सभी रानियों सहित राजा दशरथजी को पुण्य और सुंदर कल्याण की मूर्ति मानकर मैं मन, वचन और कर्म से प्रणाम करता हूँ। अपने पुत्र का सेवक जानकर वे मुझ पर कृपा करें, जिनको रचकर ब्रह्माजी ने भी बड़ाई पाई तथा जो श्रीरामचन्द्र जी के माता और पिता होने के कारण महिमा मण्डित हैं। (३,४)

॥ सोरठा ॥
बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥ (१६)
भावार्थ:- मैं अवध के राजा श्री दशरथ जी की वन्दना करता हूँ, जिनका श्रीरामजी के चरणों में सच्चा प्रेम था, जिन्होंने दीनदयाल प्रभु के बिछुड़ते ही अपने प्यारे शरीर को एक मामूली तिनके के समान त्याग दिया। (१६)

॥ चौपाई ॥
प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥ (१)
भावार्थ:- मैं परिवार सहित राजा जनक जी को प्रणाम करता हूँ, जिनका श्री रामजी के चरणों में दिव्य प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भोग में छिपा रखा था, लेकिन श्री रामचन्द्रजी को देखते ही वह प्रकट हो गया। (१)

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥ (२)
भावार्थ:- सभी भाइयों में सबसे पहले मैं श्री भरतजी के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जिनका नियम और व्रत वर्णन नहीं किया जा सकता है। जिनका मन श्री रामजी के चरण कमलों में भंवरे के समान लुभाया हुआ है, जो कभी उनका साथ नहीं छोड़ता है। (२)

बंदउँ लछिमन पद जल जाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥
रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका॥ (३)
भावार्थ:- मैं श्री लक्ष्मणजी के चरण कमलों को प्रणाम करता हूँ, जो शीतल सुंदर और भक्तों को सुख देने वाले हैं। श्री रघुनाथजी की कीर्ति रूपी विमल ध्वजा में यश रूपी ध्वजा दंड के समान है। (३)

सेष सहस्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर॥ (४)
भावार्थ:- जो हजारों सिर वाले और जगत को धारण करने वाले शेषनाग जी हैं, जिन्होंने पृथ्वी का भय दूर करने के लिए अवतार लिया है, गुणों की खान कृपा के सिन्धु सुमित्रानंदन श्री लक्ष्मणजी मुझ पर सदा प्रसन्न रहें। (४)

रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥
महाबीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥ (५)
भावार्थ:- मैं श्री शत्रुघ्नजी के चरणकमलों को प्रणाम करता हूँ, जो बड़े वीर, सुशील और श्री भरत जी के पीछे चलने वाले हैं। मैं महावीर श्री हनुमानजी की विनती करता हूँ, जिनके यश का श्री रामचन्द्रजी ने स्वयं अपने श्रीमुख से वर्णन किया है। (५)

॥ सोरठा ॥
प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥ (१७)
भावार्थ:- मैं पवनपुत्र श्री हनुमान जी को प्रणाम करता हूँ, जो दुष्ट रूपी वन को भस्म करने के लिए अग्निरूप हैं, जो ज्ञान की मूर्ति हैं और जिनके हृदय रूपी भवन में धनुष-बाण धारण किए श्री रामजी सदैव निवास करते हैं। (१७)

॥ चौपाई ॥
कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥
बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥ (१)
भावार्थ:- वानरों के राजा सुग्रीव जी, रीछों के राजा जामबन्त जी, राक्षसों के राजा विभीषण जी और अंगद जी आदि और जितना भी वानरों का समाज है, सबके सुंदर चरणों की मैं वदना करता हूँ, जिन्होंने अधम शरीर में रहते हुए भी श्रीरामचन्द्र जी का सानिध्य को प्राप्त किया। (१)

रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥
बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥ (२)
भावार्थ:- पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुर समेत जितने श्रीराम जी के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलों की वंदना करता हूँ, जो श्रीराम जी के निष्काम सेवक हैं। (२)

सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
प्रनवउँ सबहि धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥ (३)
भावार्थ:- शुकदेव जी, सनकादि, नारद मुनि आदि जितने भक्त और परम ज्ञानी श्रेष्ठ मुनिजन हैं, मैं धरती पर सिर नभाकर उन सभी को प्रणाम करता हूँ, हे मुनीश्वरों! आप सब मुझे अपना दास समझकर कृपा करें। (३)

जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥ (४)
भावार्थ:- राजा जनक की पुत्री, जगत की माता और करुणा निधान श्रीरामचन्द्र जी की अति प्रिय श्री जानकी जी के दोनों चरण कमलों को मन से प्रणाम करता हूँ, जिनकी कृपा से मुझे निर्मल बुद्धि की प्राप्ति हो। (४)

पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥
राजीवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक॥ (५)
भावार्थ:- एक बार फिर से मैं मन, वचन और कर्म से कमल नयन, धनुष-बाणधारी, भक्तों की समस्त विपत्ति का नाश करने वाले और उन्हें सुख प्रदान करने वाले भगवान्‌ श्री रघुनाथ जी के सर्व समर्थ चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। (५)

॥ दोहा ॥
गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥ (१८)
भावार्थ:- जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जल की लहर के समान कहने में तो अलग-अलग हैं, परन्तु वास्तव में एक ही हैं, उन श्रीसीताराम जी के चरणों की मैं वंदना करता हूँ, जिन्हें दीन-दुःखी अतिशय प्रिय हैं। (१८)

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥