॥ नाम वंदना और राम नाम की महिमा ॥


॥ चौपाई ॥
बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥(१)
भावार्थ:- मैं श्रीरघुनाथ जी के "राम" नाम की वंदना करता हूँ, जो कि अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा को प्रकाशित करने वाला है। "राम" नाम ब्रह्मा, विष्णु, महेश और समस्त वेदों का प्राण स्वरूप है, जो कि प्रकृति के तीनों गुणों से परे दिव्य गुणों का भंडार है।(१)

महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥(२)
भावार्थ:- "राम" नाम वह महामंत्र है जिसे श्रीशंकर जी निरन्तर जपते रहते हैं, जो कि जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होने के लिये सबसे आसान ज्ञान है। "राम" नाम की महिमा को श्रीगणेश जी जानते हैं, जो कि इस नाम के प्रभाव के कारण ही सर्वप्रथम पूजित होते हैं।(२)

जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय संग भवानी॥(३)
भावार्थ:- सृष्टि के प्रथम कवि श्रीवाल्मीकि जी ने "राम" नाम के प्रताप को जाना, जो कि उल्टा नाम 'मरा' जपकर पवित्र हो गये। भगवान के अन्य नाम की अपेक्षा "राम" नाम हजार नाम के समान है, श्रीशिव जी के मुख से सुनकर पार्वती जी सदा अपने पति के साथ सदैव इस नाम का जप किया करती हैं।(३)

हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥(४)
भावार्थ:- पार्वती जी की "राम" नाम से प्रीति देखकर श्रीशिव जी ने हर्षित होकर पतिव्रताओं में श्रेष्ठ पार्वती जी को अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार किया। "राम" नाम के प्रभाव को श्रीशिव जी भली प्रकार से जानते हैं, जिसके कारण कालकूट विष-फल भी अमृत-फल हो गया।(४)

॥ दोहा ॥
बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥(१९)
भावार्थ:- तुलसीदासजी कहते हैं श्रीरघुनाथ जी की भक्ति वर्षा ऋतु के समान है, उत्तम कोटि के सेवक धान के समान हैं और "राम" नाम के दो सुंदर अक्षर सावन-भादो के महीने के समान हैं।(१९)

॥ चौपाई ॥
आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
ससुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥(१)
भावार्थ:- "राम नाम के दोनों अक्षर अत्यन्त मधुर और मनोहर हैं, जो वर्णमाला रूपी शरीर के नेत्रों के समान हैं। "राम" नाम सभी भक्तों को स्मरण करने में आसान और सुख को प्रदान करने वाला है, जो इस लोक में सुख देने के साथ-साथ भगवान के दिव्य धाम की प्राप्ति भी कराता है।(१)

कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥
बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥(२)
भावार्थ:- तुलसी दास को "राम" नाम सुनना, बोलना और स्मरण करना श्रीराम और लक्ष्मण के समान ही प्यारा है। "राम" नाम का वर्णन करने में अर्थ और फल में भिन्नता जान पड़ती है, लेकिन यह जीव और ब्रह्म को समान भाव से सदैव एक रूप-रस में रखने वाला है।(२)

नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता॥
भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन॥(३)
भावार्थ:- "राम" नाम के दोनों अक्षर नर और नारायण के समान सहृदय भाई स्वरूप हैं, जो कि संसार के पालनकर्ता और विशेष रूप से भक्तों की रक्षा करने वाले हैं। यह दोनों अक्षर भक्ति रूपी सुंदर स्त्री के कर्णफूल रूपी सुंदर आभूषण के समान हैं और संसार के लिये कल्याणकारी निर्मल चन्द्रमा और सूर्य के समान हैं।(३)

स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥
जन मन मंजु कंज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥(४)
भावार्थ:- "राम" नाम मोक्ष रूपी अमृत फल के स्वाद के समान तृप्त करने वाला है, जो कि कच्छप और शेषनाग जी के समान पृथ्वी को धारण करने वाला है। यह भक्तों के मन रूपी सुंदर कमल पुष्प पर विहार करने वाले भंवरे के समान है और बुद्धि रूपी यशोदा के लिए श्रीकृष्ण और बलराम जी के समान आनंद देने वाला है।(४)

॥ दोहा ॥
एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥(२०)
भावार्थ:- तुलसीदासजी कहते हैं- "राम" नाम के दोनों अक्षरों में से एक श्रीरघुनाथ जी के छत्र के रूप में और दूसरा मुकुट की मणि के के रूप में शोभायमान होता है।(२०)

॥ चौपाई ॥
समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥(१)
भावार्थ:- नाम और नामी समझने में दोनों एक जैसे हैं लेकिन दोनों की प्रीति स्वामी और सेवक के समान अनुगमन करने वाली है, प्रभु श्रीराम जी भी अपने "राम" नाम का ही अनुगमन करते हैं यानि नाम लेते ही वहाँ प्रकट हो जाते हैं। नाम और रूप दोनों ही भगवान की उपाधि हैं, इन दोनों उपाधियों का वर्णन नहीं किया जा सकता है, इनका कोई आरम्भ नहीं है, केवल नाम रूप से साधना करने से ही इनका दिव्य अविनाशी स्वरूप जानने में आ सकता है।(१)

को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू॥
देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥(२)
भावार्थ:- इनमें से किसी को छोटा या बड़ा कहना अपराध है, इनके गुणों का भेद साधु पुरुषों से सुनकर ही समझ में आ सकता है। रूप को नाम के अधीन होकर ही देखा जा सकता है, नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता है।(२)

रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें॥
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥(३)
भावार्थ:- नाम के बिना रूप की विशिष्टता को जाना नहीं जा सकता है, इसे हथेली पर रखकर भी पहचाना नहीं जा सकता है। रूप को देखे बिना भी नाम का स्मरण करने से विशेष प्रेम के साथ वह रूप हृदय में प्रकट हो जाता है।(३)

नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥(४)
भावार्थ:- नाम और रूप की विशेषता को कहा नहीं जा सकता है, यह समझने आने पर ही सुख देने वाला होता है लेकिन इसका वाणी से वर्णन नहीं किया जा सकता है। नाम ही निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रहम के बीच में एकमात्र प्रिय मित्र है, और ब्रह्म का यथार्थ ज्ञान कराने वाला निपुण अनुवादक है।(४)

॥ दोहा ॥
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥(२१)
भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं, "राम" नाम की मणि को मुख रूपी द्वार की जिव्हा रूपी देहलीज पर दीप रूप में धारण करने से अन्दर और बाहर चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश हो जाता है।(२१)

॥ चौपाई ॥
नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥(१)
भावार्थ:- योग में स्थित पुरुष अपनी जिव्हा से निरन्तर नाम जपने से वैराग्य को धारण करके संसार के सभी प्रपंचो से मुक्त होकर मोह रूपी रात्रि से जाग जाते हैं। नाम रूपातीत, अतुलनीय, अनिर्वचनीय, अनामय और ब्रह्मसुख की अनुभूति कराने वाला है।(१)

जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥(२)
भावार्थ:- जो मनुष्य परमात्मा के दिव्य रहस्य को जानने की इच्छा रखते हैं, वह नाम को अपनी जिव्हा से जपकर परमात्मा के दिव्य रहस्य को जान जाते हैं। सांसारिक सुखों को चाहने वाले साधक भी निरन्तर नाम जप करते हुए अनेक प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त करके सिद्ध हो जाते हैं।(२)

जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥
राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥(३)
भावार्थ:- अपने दुखों से मुक्ति चाहने वाले मनुष्य भी नाम जप करते हैं, तो उनके बड़े से बड़े संकट मिट जाते हैं और वह सुख की प्राप्ति करते हैं। संसार में चार प्रकार के राम भक्त होते हैं (1) "अर्थार्थी" यानि धन-संपत्ति की चाह रखने वाले, (२) "आर्त" यानि अपने दुखों से मुक्ति चाहने वाले, (३) "जिज्ञासु" यानि भगवान को जानने की इच्छा वाले, (४) "ज्ञानी" यानी भगवान को तत्व रूप से जानने वाले, यह चारों ही पुण्यात्मा, पाप-रहित और उदार हृदय वाले होते हैं।(३)

चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥
चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥(४)
भावार्थ:- इन चारों ही बुद्धिमान भक्तों का नाम ही आधार होता है, इनमें से ज्ञानी भक्त भगवान को विशेष प्रिय होते हैं। वैसे तो चारों युगों में चारों ओर नाम का प्रभाव होता है, परन्तु कलियुग में विशेष रूप से नाम के अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा उपाय नहीं है।(४)

॥ दोहा ॥
सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन॥(२२)
भावार्थ:- जो मनुष्य सभी प्रकार की भोग और मोक्ष की कामनाओं से रहित होकर राम भक्ति का निरन्तर रसपान करते रहते हैं, ऎसे मनुष्यों का मन नाम के सुंदर प्रेम रूपी अमृत के सरोवर में मछली के समान होता है यानि नाम से कभी विलग नहीं होता है।(२२)

॥ चौपाई ॥
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग ‍निज बस निज बूतें॥(१)
भावार्थ:- निर्गुण और सगुण ब्रह्म के दो स्वरूप हैं, इन दोनों स्वरूपों का वाणी से वर्णन नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह अकथनीय है, इनकी गहराई का अध्यन नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह अगाध है, इनका कोई आरम्भ नहीं है क्योंकि यह अनादि है और इनकी कोई मिसाल भी नही दी जा सकती है क्योंकि यह अनुपम है। मेरी बुद्धि के अनुसार नाम इन दोनों से बड़ा है, जिसने अपने बल से दोनों ब्रह्म को अपने वश में कर रखा है।(१)

प्रौढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥(२)
भावार्थ:- सज्जन व्यक्ति इस बात को मुझ दास की धृष्टता या कल्पना न समझें, मैं अपने मन के विश्वास, प्रेम और रुचि की बात कहता हूँ। ‍निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान उस अप्रकट अग्नि के समान है, जो लकड़ी के अंदर है परन्तु दिखती नहीं है और सगुण ब्रह्म उस प्रकट अग्नि के समान है, जो प्रत्यक्ष दिखलायी देती है।(२)

उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनँद रासी॥(३)
भावार्थ:- निर्गुण और सगुण ब्रह्म दोनों ही जानने में सुगम नहीं हैं, लेकिन नाम जप से दोनों को आसानी से जाना जा सकता हैं, इसी कारण मैंने "राम" नाम को निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म राम से बड़ा कहा है, जबकि ब्रह्म एक ही है जो कि व्यापक, अविनाशी, सत्य, चेतन और आनन्द की खान है।(३)

अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥
नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥(४)
भावार्थ:- समस्त विकारों से मुक्त भगवान सभी के हृदय में रहते हैं फिर भी संसार के सभी जीव दीनहीन और दुःखी हैं। नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर श्रद्धा-पूर्वक नाम जपने से ब्रह्म उसी प्रकार प्रकट हो जाता है, जिस प्रकार रत्न की जानकारी होने से उसका मूल्य प्रकट हो जाता है।(४)

॥ दोहा ॥
निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥(२३)
भावार्थ:- इस प्रकार निर्गुण ब्रह्म से नाम का प्रभाव अत्यंत बड़ा है। अब अपने विचार के अनुसार कहता हूँ, कि नाम सगुण ब्रह्म राम से भी बड़ा है।(२३)

॥ चौपाई ॥
राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥
नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥(१)
भावार्थ:- श्रीरामचन्द्र जी ने भक्तों के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके स्वयं कष्ट सहकर साधु पुरुषों को सुखी किया, परन्तु भक्तगण प्रेम-सहित नाम जप करते हुए अनायास ही आनन्द को प्राप्त करके प्रभु के धाम को प्राप्त हो जाते हैं।(१)

राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
रिषि हित राम सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी॥(२)

सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
भंजेउ राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम प्रतापू॥(३)
भावार्थ:- श्रीराम जी ने एक तपस्वी की स्त्री अहिल्या का ही उद्धार किया था, लेकिन नाम ने तो करोड़ों दुष्टों की बिगड़ी बुद्धि को ही सुधार दिया। श्रीराम जी ने ऋषि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए यक्ष सुकेतु की कन्या ताड़का को उसके पुत्र मारीच और सुबाहु का सेना सहित नष्ट किया था, लेकिन नाम तो भक्तों के दोषों का, दुःखों का और बुरी कामनाओं का इस तरह नष्ट कर देता है जैसे सूर्य अन्धकार को नष्ट कर देता है। श्रीराम जी ने तो शिव धनुष का ही भंजन किया था, लेकिन नाम का प्रताप तो संसार के सभी प्रकार के भय का भंजन करने वाला है।(२,३)

दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन॥
निसिचर निकर दले रघुनंदन। नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥(४)
भावार्थ:- प्रभु श्रीराम जी ने भयानक दण्डक वन को सुहावना बनाया था, परन्तु नाम तो असंख्य मनुष्यों के मनों को पावन करने वाला है। श्रीरघुनन्दन जी ने पापीयों के दल का नाश किया था, लेकिन नाम तो कलियुग के समस्त पापों की जड़ को ही नाश करने वाला है।(४)

॥ दोहा ॥
सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥(२४)
भावार्थ:- श्रीरघुनाथ जी ने तो शबरी, जटायु आदि उत्तम भक्तों का ही उद्धार किया था, लेकिन नाम तो अनगिनत दुष्टों का उद्धार करने वाला है, नाम के गुणों की कथा तो वेदों में भी वर्णित है।(२४)

॥ चौपाई ॥
राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ ॥
नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥(२)
भावार्थ:- श्री रामजी ने तो सुग्रीव और विभीषण दोनों को ही अपनी शरण में रखा था यह सभी जानते हैं, लेकिन नाम तो अनेक गरीबों को शरण देने वाला है। नाम का यह सुंदर वर्णन संसार में विशिष्ट रूप से वेदों में स्थित है।(१)

राम भालु कपि कटुक बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
नामु लेत भवसिन्धु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥(२)
भावार्थ:- श्रीरामजी को तो भालू और बंदरों की सेना को एकत्र करने में और समुद्र पर पुल बाँधने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ा था, लेकिन नाम लेने मात्र से संसार समुद्र ही सूख जाता है, सज्जन मनुष्यों मन में विचार तो करो।(२)

राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा॥
राजा रामु अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥(३)

सेवक सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥
फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें॥(४)
भावार्थ:- श्रीरामचन्द्र जी ने तो कुटुम्ब सहित रावण को युद्ध में मारकर सीता सहित उन्होंने अपने नगर अयोध्या में प्रवेश किया था। राम राजा बने, अवध उनकी राजधानी बनी, देवता और मुनि सुंदर वाणी में जिनका गुणगान करते हैं, लेकिन भक्त लोग प्रेम-पूर्वक नाम के स्मरण करने मात्र से बिना परिश्रम के मोह रूपी प्रबल सेना पर विजय प्राप्त करके प्रेम-मग्न होकर सुख में विचरण करते हैं, नाम के प्रसाद से उन्हें सपने में भी कोई चिन्ता नहीं सताती है।(३,४)

॥ दोहा ॥
ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥(२५)
भावार्थ:- इस प्रकार "राम" नाम निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म दोनों से बड़ा है जो कि वरदान देने वालों को भी वर प्रदान करने वाला है। श्रीशंकर जी ने सौ करोड़ राम चरित्र में से इस "राम" नाम को सार रूप में चुनकर अपने हृदय में धारण किया हुआ है।(२५)

॥ चौपाई ॥
नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥(१)
भावार्थ:- नाम के प्रसाद से ही शंकर जी अविनाशी हैं और अमंगलकारी वेष धारण करने पर भी मंगलकारी खजाना हैं। शुकदेव जी, सनकादिक, सिद्ध, मुनि और योगीजन नाम के ही प्रसाद से ब्रह्मानन्द का भोग करते रहते हैं।(१)

नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥(२)
भावार्थ:- नारद जी ने नाम के प्रताप को जाना है, "हरि" यानि विष्णु भगवान सारे संसार को प्यारे हैं, विष्णु भगवान को "हर" यानि महादेव जी प्यारे हैं लेकिन नारद जी तो विष्णु भगवान और महादेव जी दोनों के ही प्रिय हैं। नाम के जपने से ही भगवान ने प्रहलाद पर कृपा की जो प्रभु के भक्तों के भी शिरोमणि बन गये।(२)

ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥(३)
भावार्थ:- ध्रुव जी ने सोतेली माता के वचनों से दुःखी होकर सकाम भाव से प्रभु के नाम का जाप करके अचल अनुपम स्थान ध्रुवलोक प्राप्त किया। हनुमान जी ने पावन नाम का स्मरण करके श्रीराम जी को अपने वश में कर रखा है।(३)

अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥(४)
भावार्थ:- नीच अजामिल, गज और वेश्या भी श्री हरि के नाम के प्रभाव से पाप-मुक्त हो गये। मैं नाम की महिमा कहाँ तक कहूँ, राम जी भी अपने नाम के गुणों का वर्णन नहीं कर सकते हैं।(४)

॥ दोहा ॥
नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥(२६)
भावार्थ:- कलियुग में "राम" नाम मनवांछित फल देने वाला कल्पवृक्ष है और कलियुग में सभी पापों से मुक्त करने वाला है। मैं भाँग के समान तुलसी दास नाम के स्मरण मात्र से प्रभु प्रिया पवित्र तुलसी के समान हो गया।(२६)

॥ चौपाई ॥
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥
बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥(१)
भावार्थ:- चारों युगों में, तीनों काल में और तीनों लोकों में नाम को जपकर जीव शोक-रहित हुए हैं। वेद, पुराण और संतों का भी यही मत है कि समस्त पुण्यों का फल श्रीराम जी की भक्ति प्राप्त करना है।(१)

ध्यानु प्रथम जुग मख बिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥
कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना॥(२)
भावार्थ:- सत्य-युग में ध्यान से, त्रेता-युग में यज्ञ से और द्वापर-युग में पूजन से भगवान की भक्ति प्राप्त होती हैं, परन्तु कलियुग केवल पाप की जड़ अत्यन्त गह्री और मलिन होती हैं, इस युग में मनुष्यों का मन पाप रूपी समुद्र में मछली के समान होता है, अर्थात पाप से कभी अलग होना ही नहीं चाहता है।(२)

नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥
राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥(३)
भावार्थ:- ऐसे घोर कलियुग के समय में तो "राम" नाम ही एकमात्र कल्पवृक्ष है, जो स्मरण करते ही संसार के समस्त जंजालों को नष्ट करने वाला है। कलियुग में "राम" नाम मनवांछित फल देने वाला है, यह भगवान के दिव्य धाम को पहुँचाने वाला परम हितैषी और इस संसार में माता-पिता के समान पालन और रक्षण करने वाला है।(३)

नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥(४)
भावार्थ:- कलियुग में न तो कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है, केवल "राम" नाम ही एकमात्र आधार है। जिस प्रकार कपटी कालनेमि को मारने में श्रीहनुमान जी समर्थ हैं उसी प्रकार बुद्धिमान मनुष्य कलियुग में कालनेमि रूपी कपट को "राम" नाम से मारकर कपट-रहित हो जाते हैं।(४)

॥ दोहा ॥
राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥(२७)
भावार्थ:- "राम" नाम नृसिंह भगवान के समान है, कलियुग हिरण्यकशिपु के समान है और नाम जप करने वाले मनुष्य प्रहलाद के समान हैं, यह "राम" नाम देवताओं के शत्रु कलियुग रूपी असुर को मारकर जप करने वालों की सदैव रक्षा करता है।(२७)

॥ चौपाई ॥
भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥(१)
भावार्थ:- प्रेम-भाव से, बैर-भाव से, क्रोध-भाव से या आलस्य-भाव से, किसी भी प्रकार से नाम जप दसों दिशाओं में मंगलकारी है। इसी मंगलकारी "राम" नाम का स्मरण करके श्रीरघुनाथ जी के चरण कमलों पर शीश झुकाकर मैं श्रीराम जी के गुणों की व्याख्या करता हूँ।(१)

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥