॥ ब्राह्मण और साधु पुरुषों की वंदना ॥



॥ चौपाई ॥
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥ (२)
भावार्थ:- पहले मैं इस पृथ्वी के देवता स्वरूप ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो मोह रूपी अज्ञान से उत्पन्न सभी प्रकार के भ्रम को दूर वाले हैं। फिर मैं सभी गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित मधुर वाणी से प्रणाम करता हूँ। (२)

साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥ (३)
भावार्थ:- साधु पुरुषों का चरित्र कपास के समान पवित्र होता है, जिसका फल बिना रस का विशुद्ध और गुणकारी होता है। इसी प्रकार साधु पुरुष स्वयं दुख सहन करके लोगों के दोषों को अपने गुणों से आच्छादित कर देते हैं, जिसके कारण वह संसार में सभी के वंदनीय होकर यश प्राप्त किया करते हैं। (३)

मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥ (४)
भावार्थ:- समाज में संतों का सानिध्य आनंद प्रदान करने वाला और कल्याणकारी होता है, संत इस संसार में चलता-फिरता तीर्थ-राज के समान होता है। साधु पुरुषों की राम भक्ति गंगा जी की धारा के समान होती है और उनका ब्रह्म-ज्ञान साक्षात सरस्वती जी के समान होता हैं। (४)

बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥ (५)
भावार्थ:- कलियुग में शास्त्रों के अनुसार न किये जाने वाले पाप कर्मों के फलों को नष्ट करने वाली सूर्य की पुत्री यमुना जी हैं। भगवान विष्णु जी और शंकर जी की कथाएँ त्रिवेणी के समान सभी पापों का नाश करने वाली हैं, जिनके सुनने मात्र से ही जीव का कल्याण हो जाता हैं। (५)

बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥ (६)
भावार्थ:- जिन साधु पुरुषों का अपने कर्तव्य-कर्म पर बरगद के पेड़ के समान अटल विश्वास है, उनके द्वारा किये जाने वाले समस्त शुभ कर्म तीर्थ राज प्रयाग के समान होते हैं। ऎसे संत सभी मनुष्यों के लिये हर समय सभी स्थानो में सहज रूप में उपलब्ध होते है जिनका आदर-पूर्वक सेवा करने मात्र से सम्पूर्ण पाप भस्म हो जाते हैं। (६)

अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥ (७)
भावार्थ:- ऎसे तीर्थराज रूपी संतो के कार्य इस संसार से परे होते हैं जिनकी महिमा का वर्णन नही किया जा सकता है, ऎसे संतों के सानिध्य से मिलने वाला फल का प्रभाव तत्काल प्रकट हो जाता है। (७)

॥ दोहा ॥
सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥ (२)
भावार्थ:- जो मनुष्य ऎसे संतों को अत्यन्त प्रेम-पूर्वक प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं, वह संत समाज रूपी प्रयाग में स्नान करके इसी शरीर में ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी चारों फलों को आसानी से प्राप्त कर जाते हैं। (२)

॥ चौपाई ॥
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥ (१)
भावार्थ:- संत समाज रूपी प्रयाग फल तत्काल दिखाई देता है, जिसमें स्नान करके कौए, कोयल और बगुले हंस बन जाते हैं। यह सुनकर यदि कोई आश्चर्य करता है तो उसने अभी सत्संग की महिमा को जाना ही नहीं। (१)

बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥ (२)

मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥ (३)
भावार्थ:- महर्षि वाल्मीकि, देवर्षि नारद और अन्य कई ऋषियों ने अपने-अपने मुखों से स्वयं के पूर्व-जन्मों का वृत्तांत कहा है। इस संसार में जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले, आकाश में उड़ने वाले जितने भी प्रकार के जड़ और चेतन जीव हैं। उन सभी जीवों ने जहाँ कहीं भी जिस किसी विधि से सद्‍बुद्धि, कीर्ति, सद्‍गति, ऐश्वर्य और प्रतिष्ठा प्राप्त की है, वह सब सत्संग के प्रभाव से ही प्राप्त की है, संसार के वेद-शास्त्रों में इन सबकी प्राप्ति का अन्य किसी उपाय वर्णन नहीं है। (२,३)

बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥ (४)
भावार्थ:- सत्संग के बिना मनुष्य का विवेक जाग्रत नहीं होता और सत्संग श्री राम जी की कृपा के बिना नहीं मिलता है। संतों की संगति आनंद और कल्याण का मुख्य मार्ग है, संतों की संगति ही परम-सिद्धि का फल है और सभी साधन तो फूल के समान है। (४)

सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥ (५)
भावार्थ:- दुष्ट से दुष्ट व्यक्ति भी संतो की संगति पाकर सुधर जाते हैं, जिस प्रकार पारस के स्पर्श से लोहा स्वर्ण बन जाता है। पूर्व जन्म के कर्म के कारण कभी सज्जन पुरुष बुरी संगति में पड़ जाते हैं, तब भी वह साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (५)

बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥ (६)
भावार्थ:- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कवि और पण्डितों की वाणी भी संतो की महिमा का वर्णन करने में संकोच करती है, ऎसे संतो की महिमा का गुणगान मैं किस प्रकार कर सकता हूँ जिस प्रकार सब्जी बेचने वाले मणि का गुणगान नहीं कर सकते हैं। (६)

॥ दोहा ॥
बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥ (३क)
भावार्थ:- मैं ऎसे संतों की वन्दना करता हूँ, जिनके चित्त में किसी प्रकार का भेद नहीं है, जिनका न तो कोई मित्र है और न ही कोई शत्रु है, जिस प्रकार हाथ से तोड़े गये सुगन्धित फूल उन्ही हाथों की अंजलि में रखने पर दोनों हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं। (३क)

संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ (३ख)
भावार्थ:- संत अत्यन्त सरल चित्त वाले, संसार का कल्याण चाहने वाले, निर्मल स्वभाव वाले और सभी जीवों से प्रेम करने वाले होते हैं। वह मेरी इस बालक के समान विनती को सुनकर मुझ पर कृपा करें जिससे श्री राम जी के चरणों में मुझे प्रीति स्थिर हो सके। (३ख)

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥