॥ कवि वंदना ॥










॥ चौपाई ॥
एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥
ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥ (१)
भावार्थ:- इसी प्रकार मन की शक्ति के सहारे मैं श्रीरघुनाथ जी की सुन्दर मधुर कथा कहता हूँ। जिस प्रकार व्यास आदि अनेकों श्रेष्ठ कवियों ने बड़े आदर-सहित श्रीहरि के सुन्दर यश का वर्णन किया है। (१)

चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥ (२)
भावार्थ:- उन सभी के चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ, जो मेरे सभी मनोरथों को पूरा करेंगे, कलियुग के भी उन कवियों को मैं प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने श्री रघुनाथ जी के गुणों का गुणगान किया है। (२)

जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें॥ (३)
भावार्थ:- जो बड़े बुद्धिमान स्वभाव से कवि हैं, जिन्होंने अनेक भाषा में भगवान के चरित्रों का वर्णन किया है, जो कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होंगे, उन सभी को मैं निष्कपट भाव से प्रणाम करता हूँ। (३)

होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥
जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥ (४)
भावार्थ:- आप सभी प्रसन्न होकर मुझे यह वरदान दीजिए कि साधु समाज में मेरी कविता का सम्मान हो, क्योंकि जिस कबिता का बुद्धिमान लोग आदर नहीं करते, मूर्ख कवि ही ऎसी रचना करने में व्यर्थ परिश्रम करते हैं। (४)

कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥ (५)
भावार्थ:- कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम होती है, जो गंगाजी की तरह सभी का हित करने वाली होती है। श्री रामचन्द्रजी की कीर्ति तो अति सुंदर सभी का कल्याण करने वाली है, मैं असमंजस की स्थिति में हूँ कि मेरी कविता इन दोनों बातों से मेल करेगी या नहीं, मुझे इस बात का अंदेशा है। (५)

तुम्हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥ (६)
भावार्थ:- हे कवियों! आपकी कृपा से मेरी कबिता उसीप्रकार सुलभ हो सकती है, जिसप्रकार रेशम की सिलाई टाट के कपड़े पर सुहावनी लगती है। (६)

॥ दोहा ॥
सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥ (१४ क)
भावार्थ:- बुद्धिमान लोग उसी कविता का आदर करते हैं, जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्र का वर्णन हो तथा जिसे सुनकर शत्रु भी स्वाभाविक शत्रुता को भुलाकर प्रशंसा करने लगें। (१४ क)

सो न होई बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥ (१४ ख)
भावार्थ:- ऐसी कविता कभी भी बिना निर्मल बुद्धि के नहीं होती है लेकिन मेरी बुद्धि का बल बहुत ही कम है, इसलिए हे कवियों! मैं बार-बार आपसे विनती करता हूँ कि आप मुझ पर कृपा करें, जिससे मैं प्रभु के यश का वर्णन कर सकूँ। (१४ ख)

कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल।
बालबिनय सुनि सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल॥ (१४ ग)
भावार्थ:- कवि और पण्डितजन आप जो राम चरित्र रूपी मानसरोवर के सुंदर हंस हैं, आप एक अबोध बालक के समान मेरी विनती सुनकर और मेरी सुंदर रुचि देखकर मुझ पर कृपा करें। (१४ ग)

॥ हरि ॐ तत सत ॥