tag:blogger.com,1999:blog-59309061402493940122024-02-07T08:38:26.781+05:30श्री राम चरित मानसRavi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comBlogger17125tag:blogger.com,1999:blog-5930906140249394012.post-62226937625835594822013-12-31T17:26:00.000+05:302014-05-12T20:16:21.282+05:30॥ मंगलाचरण - बालकाण्ड ॥<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJ9gN_0UT8aYWWBdwNS3DLAzKA_jwiJCyJWwZdmb9Cb4fOk9bMbc_qRWfy27aVH1ajSjNThRRnJmNA5hupV_0epT4kKcO75BYeDvd7TcblWTNgSeNdmBib2MqBkZtFQ4_fLI_CwPdwnxw/s1600/Shri+Ram+Ji+(6).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJ9gN_0UT8aYWWBdwNS3DLAzKA_jwiJCyJWwZdmb9Cb4fOk9bMbc_qRWfy27aVH1ajSjNThRRnJmNA5hupV_0epT4kKcO75BYeDvd7TcblWTNgSeNdmBib2MqBkZtFQ4_fLI_CwPdwnxw/s640/Shri+Ram+Ji+(6).jpg" height="480" width="640" /></a></div>
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<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="background-color: white; color: #b45f06; font-size: x-large;">श्लोक</span><br />
<span style="background-color: white; color: blue;">वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।<br />
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥ (१)</span></div>
भावार्थ:- शब्दों के अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली श्री सरस्वती जी और श्री गणेश जी की मैं वंदना करता हूँ। (१)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: blue;">भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।<br />
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥ (२)</span></div>
भावार्थ:- श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वती जी और श्री शंकर जी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते हैं। (२)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्।<br />
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥ (३)</span></div>
भावार्थ:- ज्ञान स्वरूप, अविनाशी स्वरूप, गुरु स्वरूप श्री शंकर जी की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही अपूर्ण चन्द्रमा की भी सदैव वन्दना होती है। (३)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।<br />
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥ (४)</span></div>
भावार्थ:- श्री सीतारामजी के गुण रूपी पवित्र वन में विहार करने वाले, विशुद्ध विज्ञान स्वरूप कवियों के ईश्वर श्री वाल्मीकि जी और कपीश्वर श्री हनुमान जी की मैं वन्दना करता हूँ। (४)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।<br />
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥ (५)</span></div>
भावार्थ:- उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाली, सम्पूर्ण क्लेशों को हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों को करने वाली श्री रामचन्द्र जी की प्रियतमा श्री सीता जी को मैं नमस्कार करता हूँ। (५)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा, </span><br />
<span style="color: #3333ff;">यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।</span><br />
<span style="color: #3333ff;">यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां, </span><br />
<span style="color: #3333ff;">वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥ (६)</span></div>
भावार्थ:- जिनकी माया के वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रम की भाँति यह सारा दृश्य जगत् सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के लिए एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणों के कारण और सबसे श्रेष्ठ श्री राम कहलाने वाले भगवान हरि की मैं वंदना करता हूँ। (६)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्, </span><br />
<span style="color: #3333ff; text-align: left;">रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।</span><br />
<span style="color: #3333ff;">
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा, </span><br />
<span style="color: #3333ff; text-align: left;">भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति॥ (७)</span></div>
भावार्थ:- अनेक पुराण, वेद और शास्त्रों से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्री रघुनाथजी की कथा का मैं तुलसीदास अपने अन्तःकरण के सुख के लिए अत्यन्त मनोहर भाषा में रचना का विस्तार करता हूँ। (७)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: red; font-size: x-large;">॥ दोहा ॥</span><br />
<span style="color: magenta;">जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।<br />
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥ (१)</span></div>
भावार्थ:- जिनके स्मरण करने से सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं, जो गणों के स्वामी और सुंदर हाथी के मुख वाले हैं, बुद्धि के दाता और शुभ गुणों के धाम श्री गणेश जी मुझ पर कृपा करें। (१)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: magenta;">मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन।<br />
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलिमल दहन॥ (२)</span></div>
भावार्थ:- जिनकी कृपा से गूँगा बोलने लग जाता है और लँगड़ा भी दुर्गम पहाड़ों पर चढ़ जाता है, कलियुग में सभी पापों को जला डालने वाले दयालु भगवान मुझ पर दया करें। (२)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: magenta;">नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।<br />
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥ (३)</span></div>
भावार्थ:- जो नीलकमल के समान श्यामवर्ण हैं, पूर्ण खिले हुए लाल कमल के समान जिनके नेत्र हैं और जो सदा क्षीर-सागर में शयन करते हैं, वह भगवान् विष्णु मेरे हृदय में सदैव निवास करें। (३)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: magenta;">कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन। <br />
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥ (४)</span></div>
भावार्थ:- जिनका कुंद के पुष्प और चन्द्रमा के समान गौर शरीर है, जो श्री पार्वती जी के प्रियतम और दया के धाम हैं जो दीनों पर दया करने वाले है और कामदेव को जीतने वाले श्री शंकर जी मुझ पर कृपा करें। (४)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<b style="color: purple; font-size: xx-large;">॥ सोरठा ॥</b></div>
<div align="center">
<span style="color: magenta; text-align: left;">बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।</span><br />
<span style="color: magenta;">महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥ (५)</span></div>
भावार्थ:- मैं गुरु जी के चरण-कमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के सागर हैं, मनुष्य रूप में श्री भगवान ही हैं, जिनके वचन घोर अन्धकार रूपी महान मोह का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समान हैं। (५)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #006600;">॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</span></div>
</div>
Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5930906140249394012.post-25188889601974631062013-12-30T16:24:00.000+05:302014-05-24T20:16:03.967+05:30॥ गुरु वंदना ॥<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg4MTiUX6fc0BgdOv8FS3rv9-KnRzKGyYn5KT5r02cfs9pij9uzA8v3vVGdMbuFozj4Tvc07D2Uc4dU-qc4DS6zOBSL3oTmHGaS-bjaD9c7lVpu48jsUP5uohK7iIW5KoCb7fNcjm0ullk/s1600/Ram+%25288%2529.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg4MTiUX6fc0BgdOv8FS3rv9-KnRzKGyYn5KT5r02cfs9pij9uzA8v3vVGdMbuFozj4Tvc07D2Uc4dU-qc4DS6zOBSL3oTmHGaS-bjaD9c7lVpu48jsUP5uohK7iIW5KoCb7fNcjm0ullk/s1600/Ram+%25288%2529.jpg" height="480" width="640" /></a></div>
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<div align="center">
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<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><span class="Apple-style-span" style="color: #274e13;"><b>॥ चौपाई ॥</b></span></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #3333ff;">बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥<br />
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥ (१)</span></div>
भावार्थ:- मैं गुरु जी के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुन्दर स्वादिष्ट, सुगंध युक्त तथा अनुराग रूपी रस से परिपूर्ण है, वह अमर संजीवनी बूटी रुपी सुंदर चूर्ण के समान है, जो समस्त परिवारिक मोह रुपी महान रोगों का नाश करने वाला है। (१)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥<br />
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥ (२)</span></div>
भावार्थ:- वह चरण-रज शिव जी के शरीर पर सुशोभित निर्मल भभूति के समान है, जो कि परम कल्याणकारी और आनन्द को प्रदान करने वाली है। उस चरण-रज से मन रूपी दर्पण की मलीनता दूर हो जाती है और जिसके तिलक लगाने से प्रकृति के सभी गुण वश में हो जाते है। (२)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥<br />
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥ (३)</span></div>
भावार्थ:- श्री गुरु जी के चरणों के नख प्रकाशित मणियों के समान है, जिनके स्मरण मात्र से ही हृदय में ज्ञान रुपी दिव्य प्रकाश उत्पन्न हो जाता है। उस प्रकाश से अज्ञान रूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है, वह मनुष्य बड़े भाग्यशाली होते हैं जिनके हृदय में वह दिव्य प्रकाश प्रवेश कर जाता है। (३)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥<br />
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥ (४)</span></div>
भावार्थ:- उस प्रकाश से हृदय के दिव्य नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि का दुःख रुपी अन्धकार मिट जाता हैं। उस प्रकाश से हृदय रूपी खान में छिपे हुए श्री रामचरित्र रूपी मणि और मांणिक स्पष्ट दिखाई देने लगते हैं। (४)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="color: red;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><b>॥ दोहा ॥ </b></span></span><br />
<span style="color: magenta;">जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।<br />
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥ (१)</span></div>
भावार्थ:- जिस प्रकार आश्चर्यचकित तरीके से मनुष्य पर्वतों, बनों और पृथ्वी के अंदर छिपे रत्नों को पाकर समृद्धि को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार उन मणियों के प्रकाश रुपी सुरमा को अपने दिव्य नेत्रों में लगाकर साधक परम-सिद्धि को प्राप्त कर जाता हैं। (१) <br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><span class="Apple-style-span" style="color: #274e13;"><b>॥ चौपाई ॥ </b></span></span><br />
<span style="color: #3333ff;">गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥<br />
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥ (१)</span></div>
भावार्थ:-श्री गुरु महाराज के चरणों की रज सौम्य और सुंदर सुरमा के समान है, जो दिव्य नेत्र के दोषों का नाश करने वाला है। उस रज रुपी सुरमा से विवेक रूपी नेत्र को निर्मल करके मैं संसार रूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ। (१)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #006600;">॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</span></div>
</div>
Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5930906140249394012.post-11031892738739573492013-12-29T19:16:00.000+05:302014-05-24T20:18:04.413+05:30॥ ब्राह्मण और साधु पुरुषों की वंदना ॥<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhkAdjEBbAhSgZ0d9ktfdUsTOptTo1UwyIlmrs6TGjHSo9pa6qGk7JiLkO3xmAc-UoQcFuDCWNpFMUi8FLZPr05s_gzUXcKMRysyxSczKIIB8USxfzqYYTMeRqP7ij-LOjN9qgdzBk3DTM/s1600/Ram+%25283%2529.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhkAdjEBbAhSgZ0d9ktfdUsTOptTo1UwyIlmrs6TGjHSo9pa6qGk7JiLkO3xmAc-UoQcFuDCWNpFMUi8FLZPr05s_gzUXcKMRysyxSczKIIB8USxfzqYYTMeRqP7ij-LOjN9qgdzBk3DTM/s1600/Ram+%25283%2529.JPG" height="480" width="640" /></a></div>
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<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><span class="Apple-style-span" style="color: #274e13;">॥ चौपाई ॥ </span></span><br />
<span style="color: #3333ff;">बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥<br />
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥ (२)</span></div>
भावार्थ:- पहले मैं इस पृथ्वी के देवता स्वरूप ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो मोह रूपी अज्ञान से उत्पन्न सभी प्रकार के भ्रम को दूर वाले हैं। फिर मैं सभी गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित मधुर वाणी से प्रणाम करता हूँ। (२) <br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥<br />
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥ (३)</span></div>
भावार्थ:- साधु पुरुषों का चरित्र कपास के समान पवित्र होता है, जिसका फल बिना रस का विशुद्ध और गुणकारी होता है। इसी प्रकार साधु पुरुष स्वयं दुख सहन करके लोगों के दोषों को अपने गुणों से आच्छादित कर देते हैं, जिसके कारण वह संसार में सभी के वंदनीय होकर यश प्राप्त किया करते हैं। (३)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥<br />
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥ (४)</span></div>
भावार्थ:- समाज में संतों का सानिध्य आनंद प्रदान करने वाला और कल्याणकारी होता है, संत इस संसार में चलता-फिरता तीर्थ-राज के समान होता है। साधु पुरुषों की राम भक्ति गंगा जी की धारा के समान होती है और उनका ब्रह्म-ज्ञान साक्षात सरस्वती जी के समान होता हैं। (४)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥<br />
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥ (५)</span></div>
भावार्थ:- कलियुग में शास्त्रों के अनुसार न किये जाने वाले पाप कर्मों के फलों को नष्ट करने वाली सूर्य की पुत्री यमुना जी हैं। भगवान विष्णु जी और शंकर जी की कथाएँ त्रिवेणी के समान सभी पापों का नाश करने वाली हैं, जिनके सुनने मात्र से ही जीव का कल्याण हो जाता हैं। (५)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥<br />
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥ (६)</span></div>
भावार्थ:- जिन साधु पुरुषों का अपने कर्तव्य-कर्म पर बरगद के पेड़ के समान अटल विश्वास है, उनके द्वारा किये जाने वाले समस्त शुभ कर्म तीर्थ राज प्रयाग के समान होते हैं। ऎसे संत सभी मनुष्यों के लिये हर समय सभी स्थानो में सहज रूप में उपलब्ध होते है जिनका आदर-पूर्वक सेवा करने मात्र से सम्पूर्ण पाप भस्म हो जाते हैं। (६)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥ (७)</span></div>
भावार्थ:- ऎसे तीर्थराज रूपी संतो के कार्य इस संसार से परे होते हैं जिनकी महिमा का वर्णन नही किया जा सकता है, ऎसे संतों के सानिध्य से मिलने वाला फल का प्रभाव तत्काल प्रकट हो जाता है। (७)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="color: red;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></span><br />
<span style="color: magenta;">सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।<br />
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥ (२)</span></div>
भावार्थ:- जो मनुष्य ऎसे संतों को अत्यन्त प्रेम-पूर्वक प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं, वह संत समाज रूपी प्रयाग में स्नान करके इसी शरीर में ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी चारों फलों को आसानी से प्राप्त कर जाते हैं। (२)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><span class="Apple-style-span" style="color: #274e13;">॥ चौपाई ॥ </span></span><br />
<span style="color: #3333ff;">मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥<br />
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥ (१)</span></div>
भावार्थ:- संत समाज रूपी प्रयाग फल तत्काल दिखाई देता है, जिसमें स्नान करके कौए, कोयल और बगुले हंस बन जाते हैं। यह सुनकर यदि कोई आश्चर्य करता है तो उसने अभी सत्संग की महिमा को जाना ही नहीं। (१)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥<br />
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥ (२)<br />
<br />
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥<br />
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥ (३)</span></div>
भावार्थ:- महर्षि वाल्मीकि, देवर्षि नारद और अन्य कई ऋषियों ने अपने-अपने मुखों से स्वयं के पूर्व-जन्मों का वृत्तांत कहा है। इस संसार में जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले, आकाश में उड़ने वाले जितने भी प्रकार के जड़ और चेतन जीव हैं। उन सभी जीवों ने जहाँ कहीं भी जिस किसी विधि से सद्बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, ऐश्वर्य और प्रतिष्ठा प्राप्त की है, वह सब सत्संग के प्रभाव से ही प्राप्त की है, संसार के वेद-शास्त्रों में इन सबकी प्राप्ति का अन्य किसी उपाय वर्णन नहीं है। (२,३)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥<br />
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥ (४)</span></div>
भावार्थ:- सत्संग के बिना मनुष्य का विवेक जाग्रत नहीं होता और सत्संग श्री राम जी की कृपा के बिना नहीं मिलता है। संतों की संगति आनंद और कल्याण का मुख्य मार्ग है, संतों की संगति ही परम-सिद्धि का फल है और सभी साधन तो फूल के समान है। (४)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥<br />
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥ (५)</span></div>
भावार्थ:- दुष्ट से दुष्ट व्यक्ति भी संतो की संगति पाकर सुधर जाते हैं, जिस प्रकार पारस के स्पर्श से लोहा स्वर्ण बन जाता है। पूर्व जन्म के कर्म के कारण कभी सज्जन पुरुष बुरी संगति में पड़ जाते हैं, तब भी वह साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (५)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥<br />
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥ (६)</span></div>
भावार्थ:- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कवि और पण्डितों की वाणी भी संतो की महिमा का वर्णन करने में संकोच करती है, ऎसे संतो की महिमा का गुणगान मैं किस प्रकार कर सकता हूँ जिस प्रकार सब्जी बेचने वाले मणि का गुणगान नहीं कर सकते हैं। (६)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="color: red;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></span><br />
<span style="color: magenta;">बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।<br />
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥ (३क)</span></div>
भावार्थ:- मैं ऎसे संतों की वन्दना करता हूँ, जिनके चित्त में किसी प्रकार का भेद नहीं है, जिनका न तो कोई मित्र है और न ही कोई शत्रु है, जिस प्रकार हाथ से तोड़े गये सुगन्धित फूल उन्ही हाथों की अंजलि में रखने पर दोनों हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं। (३क)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: magenta;">संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।<br />
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ (३ख)</span></div>
भावार्थ:- संत अत्यन्त सरल चित्त वाले, संसार का कल्याण चाहने वाले, निर्मल स्वभाव वाले और सभी जीवों से प्रेम करने वाले होते हैं। वह मेरी इस बालक के समान विनती को सुनकर मुझ पर कृपा करें जिससे श्री राम जी के चरणों में मुझे प्रीति स्थिर हो सके। (३ख)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #006600;">॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</span></div>
</div>
Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5930906140249394012.post-74725384741848760912013-12-28T17:24:00.000+05:302014-05-24T22:26:18.920+05:30॥ आसुरी स्वभाव वालों की वंदना ॥<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiJCiaaxX8J4jMoFjPY6Q5ga00zfh6ptdBIj9vSY-UgFwgEg6EXYfzaSuPh-j9sXd_J-aFbbsZG1dOCC8u1e2ocyHid75TNhnSCVclklQodxie9HmmAG3hzRQMVEAIaKN9cOAUjZmejVEw/s1600/Ram+%25289%2529.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiJCiaaxX8J4jMoFjPY6Q5ga00zfh6ptdBIj9vSY-UgFwgEg6EXYfzaSuPh-j9sXd_J-aFbbsZG1dOCC8u1e2ocyHid75TNhnSCVclklQodxie9HmmAG3hzRQMVEAIaKN9cOAUjZmejVEw/s1600/Ram+%25289%2529.jpg" height="853" width="640" /></a></div>
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><span class="Apple-style-span" style="color: #274e13;">॥ चौपाई ॥ </span></span><br />
<span style="color: #3333ff;">बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥<br />
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥ (१)</span></div>
भावार्थ:- अब मैं शुद्ध मन-भाव से सभी असुर स्वभाव वाले मनुष्यों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना किसी कारण के दूसरों को कष्ट पहुँचाने वाले हैं। जिनके दृष्टि में दूसरों की हानि ही उनके लिये लाभ होती है, जिनको दूसरों की बर्बादी में खुशी मिलती है और दूसरों उन्नति से दुख मिलता हैं। (१) <br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥<br />
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥ (२)</span></div>
भावार्थ:- जो विष्णु और शिव की कीर्ति रूपी चन्द्रमा के लिए राहु के समान हैं, और दूसरों की बिना किसी कारण के कष्ट पहुँचाने सहत्रबाहु के समान हैं। जो दूसरों के दोषों को हजारों आँखों से देखते हैं, जिनके लिये दूसरों का लाभ घी के समान और उनका मन मक्खी के समान होता है। (२)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥<br />
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥ (३)</span></div>
भावार्थ:- जिनका तेज अग्नि के समान और क्रोध यमराज के समान होता हैं, जिनके पाप और अवगुण रूपी धन, कुबेर के धन के समान होते हैं और जिनकी उन्नति सभी का अहित करने के लिए केतु के समान होती है, ऎसे लोगों का कुम्भकरण के समान सोते रहना ही सभी के लिये हितकारी होता है। (३)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥<br />
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥ (४)</span></div>
भावार्थ:- जिस प्रकार ओले खेती का नाश करके स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार वह अकारण ही दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए स्वयं के शरीर को नष्ट कर लेते हैं। मैं ऎसे दुष्टों को शेषनाग जी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो हजारों मुखों से दूसरों के दोषों का वर्णन करते हैं। (४)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥<br />
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥ (५)</span></div>
भावार्थ:- जिस प्रकार भगवान का गुणगान सुनने राजा पृथु ने भगवान से दस हजार कान माँगे थे, उन्ही के समान समझकर मैं उनको पुन: प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानों से दूसरों की निन्दा को सुनते हैं। अब में देवताओं के राजा इन्द्र के समान समझकर विनय करता हूँ जिनके लिये मदिरा अमृत के समान हितकारी मालूम देती है। (५)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥ (६)</span></div>
भावार्थ:- जिनको सदैव कठोर शब्द वज्र के समान प्यारे लगते हैं और जिनको हजारों आँख से दूसरों के दोष ही दिखलाई देते हैं। (६)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="color: red;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></span><br />
<span style="color: magenta;">उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।<br />
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥ (४)</span></div>
भावार्थ:- दुष्ट लोगों की यही स्वभाव होता है जो मित्रों और शत्रुओं के प्रति उदासीन होते हैं और उनकी प्रशंसा सुनकर जलते हैं। यह जानकर भी अनेक लोग उनसे दोनों हाथ जोड़कर प्रेम-पूर्वक प्रार्थना करते हैं। (४)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><span class="Apple-style-span" style="color: #274e13;">॥ चौपाई ॥ </span></span><br />
<span style="color: #3333ff;">मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥<br />
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥ (१)</span></div>
भावार्थ:- मैं अपनी ओर से उनसे कितनी भी प्रार्थना करूँ लेकिन वह अपने लाभ के लिये भी कभी नहीं सुधरेंगे। जिस प्रकार कौओं को कितने भी प्रेम से पालने पर भी वह मांस को खाना कभी नहीं छोड़ते हैं। (१)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #006600;">॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</span></div>
</div>
Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5930906140249394012.post-12710837747959945142013-12-27T19:43:00.000+05:302014-05-24T22:53:50.228+05:30॥ संत और असंत मनुष्यों वंदना ॥<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj208V4_l4WxgSRaG6Parh0xvtMQtgwQ7Xh-AYtFqfM-hgBsgsmv7avcYfjCCTU1GT309JIbpHYh3NzJXc_-p1ofbfvVJwBkB7Vnz4v_KoK2vOWqzk2O91wQ0_pcG6fe2zwkJdlfn2caTw/s1600/Ram+(19).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj208V4_l4WxgSRaG6Parh0xvtMQtgwQ7Xh-AYtFqfM-hgBsgsmv7avcYfjCCTU1GT309JIbpHYh3NzJXc_-p1ofbfvVJwBkB7Vnz4v_KoK2vOWqzk2O91wQ0_pcG6fe2zwkJdlfn2caTw/s1600/Ram+(19).jpg" height="480" width="640" /></a></div>
<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="color: #38761d; font-size: x-large;">॥ चौपाई ॥ </span><br />
<span style="color: #3333ff;">बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥<br />
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥ (२)</span></div>
भावार्थ:- मैं देवता स्वभाव वाले मनुष्यों (संत) और आसुरी स्वभाव वाले मनुष्यों (असंत) के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों की संगति ही दुखदायी होती है लेकिन दोनों के अन्तर का कुछ वर्णन किया गया है। संत का बिछुड़ना प्राण निकलने के समान दुखदायी होता हैं और असंत का मिलना अत्यन्त दुखदायी होता हैं। (२)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥<br />
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥ (३)</span></div>
भावार्थ:- संत और असंत संसार में एक साथ उत्पन्न होते हैं लेकिन कमल और जोंक की तरह दोनों के गुण अलग-अलग होते हैं। संत पुरुष अमृत के समान होते हैं और असंत पुरुष मदिरा के समान होते हैं लेकिन दोनों को उत्पन्न करने वाला संसार रूपी सागर एक ही है। (३)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥<br />
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥ (४)<br />
<br />
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥ (५)</span></div>
भावार्थ:- दोनों अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही भलाई-बुराई और कीर्ति-अपकीर्ति रूपी सम्पत्ति प्राप्त करते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गंगाजी एवं साधु और ज़हर, अग्नि, कलियुग रूपी पाप की नदी एवं हिंसक पशु, इनके गुण और अवगुण सभी जानते हैं लेकिन जिसका जैसा स्वभाव होता है उसको वैसा ही अच्छा लगता है। (४,५)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="color: red;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></span><br />
<span style="color: magenta;">भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।<br />
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥ (५)</span></div>
भावार्थ:- अच्छा व्यक्ति अच्छाई को ही ग्रहण करता है और बुरा व्यक्ति बुराई को ही ग्रहण करता है, जिस प्रकार अमृत से अमरता प्राप्त होती है और ज़हर से मृत्यु प्राप्त होती है। (५)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="color: #38761d; font-size: x-large;">॥ चौपाई ॥ </span><br />
<span style="color: #3333ff;">खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥<br />
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥ (१)</span></div>
भावार्थ:- दुष्टों के पापों और दुर्गुणों की और सज्जनों के गुणों की कथायें समस्त भय से मुक्त करने के लिये कभी न समाप्त होने वाले समुद्र के समान हैं। इन्हीं कथाओं में कुछ गुण और दोषों का वर्णन किया गया है, क्योंकि बिना पहिचाने गुणों को ग्रहण नहीं किया जा सकता है और अवगुणों का त्याग नहीं किया जा सकता है। (१)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥ <br />
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥ (२)</span></div>
भावार्थ:- सभी अच्छाई और बुराई तो ब्रह्मा जी के द्वारा ही उत्पन्न किये गये हैं, लेकिन गुण और दोष को तो वेदों के द्वारा अलग-अलग गाये गये है। इतिहास, वेद और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की इस सृष्टि में गुण और अवगुण दोनों ही की भरमार है। (२)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥<br />
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥ (३)<br />
<br />
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥ <br />
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥ (४)<br />
<br />
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥ (५)</span></div>
भावार्थ:- दुख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, जीवन-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, लक्ष्य-अलक्ष्य, राजा-रंक, शरीर-आत्मा, पवित्र-अपवित्र, मरुतगण-असुरगण, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग के गुणों और दोषों का वेदों में अलग-अलग वर्णन किया गया हैं। (३,४,५)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="color: red;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></span><br />
<span style="color: magenta;">जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।<br />
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥ (६)</span></div>
भावार्थ:- भगवान ने इस संसार की रचना जड़ और चेतन रूप में गुणों और दोषों से युक्त की है। संत पुरुष हंस के समान होते हैं जिस प्रकार हंस जल मिश्रित दूध में से दूध को ही ग्रहण करता है उसी प्रकार संत पुरुष गुण-दोष से मिश्रित इस संसार से गुणों को ग्रहण करते हैं। (६)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="color: #38761d; font-size: x-large;">॥ चौपाई ॥ </span><br />
<span style="color: #3333ff;">अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥<br />
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥ (१)</span></div>
भावार्थ:- भगवान जब मनुष्य को हंस रूपी विवेक देते हैं, तभी मनुष्य अपने दोषों का त्याग करके गुणों को ग्रहण कर पाता है। समय, स्वभाव और पूर्व जन्मों के कर्म के कारण साधु पुरुष भी माया के वश में होकर लक्ष्य से भटक जाते हैं। (१)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥<br />
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥ (२)</span></div>
भावार्थ:- जो भगवान के भक्त होते हैं वह अपनी भूल को सुधार लेते हैं वह अपने दुख और दोषों को मिटाकर निर्मल होकर सभी यश प्रदान करते हैं। कभी-कभी दुष्ट लोग भी अच्छे लोगों की संगति पाकर भलाई किया करते हैं, परन्तु उनका दोषयुक्त स्वभाव कभी नहीं मिटता है। (२)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥<br />
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥ (३)</span></div>
भावार्थ:- जो लोग साधु का भेष धारण करके संसार के लोगों को ठगते हैं जिनके भेष को देखकर संसार उनको पूजता है, परन्तु अंत में एक दिन उनका कपट सबके सामने आ ही जाता है, जिस प्रकार कालनेमि, रावण और राहु का कपट सबके सामने आया था। (३)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥<br />
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥ (४)</span></div>
भावार्थ:- साधु पुरुष यदि बुरा भेष भी धारण कर लेते हैं तो भी उन्हे सम्मान प्राप्त होता है, जिस प्रकार जामवंत और हनुमान् जी को संसार जानता है। बुरे लोगों की संगति से हानि और अच्छे लोगों की संगति से लाभ प्राप्त होता है, वेदों में वर्णित इस बात को सभी लोग जानते हैं। (४)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥<br />
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥ (५)</span></div>
भावार्थ:- जिस प्रकार हवा का संग पाकर धूल आकाश की ओर उठ जाती है और कीचड़ की संगति पाकर शुद्ध जल भी गंदा हो जाता है उसी प्रकार संत पुरुषों के घर का तोता राम-राम बोलना सीख जाता हैं और दुष्ट पुरुषों के घर का तोता गाली बोलना सीख जाता हैं। (५)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥<br />
सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥ (६)</span></div>
भावार्थ:- धुँआ बुरी संगति के कारण काला होता है, वही धुँआ स्याही बनकर पुराणों को लिखने के काम में आता है, और वही धुआँ जल, अग्नि और वायु की संगति से बादल बनकर संसार को जीवन प्रदान करता है। (६)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="color: red;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></span><br />
<span style="color: magenta;">ग्रह भेजष जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।<br />
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥ (७ क)</span></div>
भावार्थ:- जिस प्रकार ग्रह, जड़ी-बूटी, जल, वायु और वस्त्र भी बुरी संगति और अच्छी संगति से बुरी वस्तु और अच्छी वस्तु बन जाते हैं, उसी प्रकार सज्जन पुरुष इस बात को जानते हैं। (७ क)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: magenta;">सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।<br />
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥ (७ ख)</span></div>
भावार्थ:- जिस प्रकार शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष दोनों में अन्धकार और प्रकाश समान ही रहता है, परन्तु विधाता ने इनके नाम में अन्तर कर दिया है, उसी प्रकार चन्द्रमा को घटाने वाला और बढ़ाने वाला समझकर संसार ने एक को कीर्ति देने वाला और दूसरे को अपकीर्ति देने वाला समझ लिया। (७ ख)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: magenta;">जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।<br />
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥ (७ ग)</span></div>
भावार्थ:- इस संसार में जो भी जड़ और चेतन जीव हैं, उन सभी को भगवान राम का स्वरूप जानकर मैं उन सभी के चरण कमलों की सादर दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ। (७ग)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="background-color: white; color: magenta;">देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।<br />
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥ (७ घ)</span></div>
भावार्थ:- देवता, असुर, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गंधर्व, किन्नर और निशाचर सभी को मैं प्रणाम करता हूँ, सभी से मैं कृपा करने की प्रार्थना करता हूँ। (७घ)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #006600;">॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</span><br />
<span style="color: #006600;"></span></div>
<br />
<br /></div>
Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5930906140249394012.post-62652186262266920492013-12-26T21:01:00.000+05:302014-05-24T22:12:58.069+05:30॥ राम भक्तिमयी कविता की महिमा ॥<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqRzH-SQkaOTILAmt_pT4ygHymdXyYxd9xFKL6y8hNapuNwAd21Ts7j3RkxNmjvr6PHZmplogL2BKV91xcfiaT_KI5m7MQUIevNlzvFJV-JJtRHlROkulQkMsstTPguv1AZHq_eMJFQVs/s1600/Ram+(11).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqRzH-SQkaOTILAmt_pT4ygHymdXyYxd9xFKL6y8hNapuNwAd21Ts7j3RkxNmjvr6PHZmplogL2BKV91xcfiaT_KI5m7MQUIevNlzvFJV-JJtRHlROkulQkMsstTPguv1AZHq_eMJFQVs/s1600/Ram+(11).jpg" height="426" width="640" /></a></div>
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><span class="Apple-style-span" style="color: #274e13;">॥ चौपाई ॥ </span></span><br />
<span style="color: #3333ff;">आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥<br />
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥ (१)</span></div>
भावार्थ:- सभी चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सब से भरे हुए इस सारे संसार को श्री सियाराम के समान जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। (१)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥<br />
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाहीं॥ (२)</span></div>
भावार्थ:- आप सभी मिलकर मुझे अपना तुच्छ सेवक जानकर सभी छल को छोड़कर कृपा करें क्योंकि मुझे अपने बुद्धि और बल पर भरोसा नहीं है, इसीलिए मैं आप सभी से विनती करता हूँ। (२)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥<br />
सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राउ॥ (३)</span></div>
भावार्थ:- मैं श्री रघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि अति सूक्ष्म है और श्री रामजी का चरित्र अनन्त है, इसके लिए मुझे एक मात्र भी उपाय नहीं सूझ रहा है, मेरे मन और बुद्धि भिक्षुक के समान हैं, किन्तु मेरा मनोरथ राजा के समान है। (३)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥<br />
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥ (४)</span></div>
भावार्थ:- मेरी बुद्धि तो अत्यन्त निम्न श्रेणी की है और रूचि बड़ी उच्च श्रेणी की है, मेरी कामना तो अमृत प्राप्त करने की है, लेकिन संसार में तो छाछ भी नहीं है, सज्जनों लोग मेरी इस ढिठाई को क्षमा करें और बच्चे के समान मेरे वचनों को मन लगाकर प्रेमपूर्वक सुनें। (४)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">जौं बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥<br />
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥ (५)</span></div>
भावार्थ:- जिस प्रकार बच्चा जब तोतली भाषा में बोलता है, तो उसके माता-पिता बच्चे की तोतली भाषा को सुनकर प्रसन्न होते हैं, किन्तु क्रूर, कुटिल स्वभाव वाले और बुरे विचार वाले व्यक्ति जो दूसरों के दोषों को ही देखकर हँसी उड़ाते हैं। (५)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥<br />
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥ (६)</span></div>
भावार्थ:- अपनी कविता सुन्दर हो या अत्यन्त नीरस हो किसको अच्छी नहीं लगती है, किन्तु जो दूसरों की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम व्यक्ति संसार में अधिक नहीं हैं। (६)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हि जल पाई॥<br />
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥ (७)</span></div>
भावार्थ:- संसार में नदियों के समान स्वभाव वाले व्यक्ति बहुत अधिक होते हैं, जो अपनी उन्नति से ही प्रसन्न होते हैं जैसे नदियां अपने ही जल को पाकर बाढ़ का रूप धारण कर लेती हैं। समुद्र के समान तो कोई एक बिरला ही सज्जन व्यक्ति होता है, जो दूसरों की उन्नति को देखकर प्रसन्न होता है जैसे पूर्णिमा के चाँद को देखकर समुद्र उमड़ पड़ता है। (७)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="color: red;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></span><br />
<span style="color: magenta;">भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।<br />
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास॥ (८)</span></div>
भावार्थ:- मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी है, परन्तु मुझे एक विश्वास है कि इसे सुनकर सभी सज्जन स्वभाव वाले व्यक्ति सुख पायेंगे और दुष्ट स्वभाव वाले व्यक्ति मज़ाक उड़ायेंगे। (८)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><span class="Apple-style-span" style="color: #274e13;">॥ चौपाई ॥ </span></span><br />
<span style="color: #3333ff;">खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥<br />
हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥ (१)</span></div>
भावार्थ:- दुष्ट स्वभाव वाले व्यक्तियो के मज़ाक उड़ाने से तो मेरा हित ही होगा, क्योंकि मधुर कण्ठ वाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहते हैं। जैसे मेंढक और पपीहे को देख बगुले हँसते हैं, वैसे ही दुष्ट स्वभाव वाले व्यक्ति सज्जन स्वभाव वालों की कही गयी निर्मल वाणी पर हँसते हैं। (१)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥<br />
भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जो हँसें नहिं खोरी॥ (२)</span></div>
भावार्थ:- जिन व्यक्तियों को न तो कविता में रस मिलता है और न ही श्री रामचन्द्र जी के चरणों में प्रेम होता है, उनके लिए भी यह सुखद हास्य रस प्रदान करेगी। एक तो यह भाषा ही ऎसी है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है, इसलिये यह हँसने के योग्य ही है, इस पर हँसने पर भी उन्हें कोई दोष नहीं लगेगा। (२)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी॥<br />
हरि हर पद रति मति न कुतर की। तिन्ह कहँ मधुर कथा रघुबर की॥ (३)</span></div>
भावार्थ:- जिन्हें न तो प्रभु के चरणों में प्रेम होता है और न अच्छी समझ ही होती है, उनको यह कथा सुनने में नीरस ही लगेगी। जिनकी श्री हरि भगवान विष्णु और श्री हर भगवान शिव के चरणों में प्रीति होती है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करने वाली नहीं होती है उन्हें श्री रघुनाथजी की यह कथा मधुर ही लगेगी। (३)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥<br />
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥ (४)</span></div>
भावार्थ:- सज्जन व्यक्ति इस कथा को अपने हृदय में श्री रामजी की भक्ति से सुसज्जित समझेंगे और सुंदर वाणी से सराहना करते हुए सुनेंगे। मैं न तो कोई कवि हूँ, न वाणी में ही कुशल हूँ, मैं तो सभी कलाओं से और सभी विद्याओं से अज्ञान हूँ। (४)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥<br />
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥ (५)</span></div>
भावार्थ:- अनेक प्रकार के अक्षर, अर्थ, अलंकार और छंदो में अनेक प्रकार की विधियां होती है, भावों और रसों में असंख्य भेद होते हैं, और कविता में विविध प्रकार के गुण-दोष भी होते हैं। (५)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥ (६)</span></div>
भावार्थ:- मुझमें कवि के समान कल्पना-शक्ति वाली एक भी बात नहीं है, मैं यह कोरे कागज पर लिखकर सत्य कहता हूँ। (६)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="color: red;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></span><br />
<span style="color: magenta;">भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।<br />
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक॥ (९)</span></div>
भावार्थ:- मेरी यह रचना सब गुणों से रहित होते हुए भी इसमें विश्व-विख्यात एक गुण है, जिसे विचार करके सुनने मात्र से बुद्धिमान व्यक्ति का स्वभाव निर्मल और विवेकशील हो सकेगा। (९)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><span class="Apple-style-span" style="color: #274e13;">॥ चौपाई ॥ </span></span><br />
<span style="color: #3333ff;">एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥<br />
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥ (१)</span></div>
भावार्थ:- इसमें उद्धार करने वाला श्री रघुपति राघव का नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेदो की श्रुतियों का सार है, परम मंगलकारी है और सभी अमंगल को हरने वाला है, जिस नाम को पार्वती जी सहित भगवान शिव जी सदैव जपते हैं। (१)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोउ॥<br />
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी॥ (२)</span></div>
भावार्थ:- किसी भी महान कवि के द्वारा रची हुई अति विलक्षण रचना भी राम नाम के बिना शोभा नहीं पाती है। जिस प्रकार चन्द्रमा के समान मुख वाली सभी प्रकार से सुसज्जित सुन्दर स्त्री बिना वस्त्र के शोभा नहीं पाती है। (२)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥<br />
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥ (३)</span></div>
भावार्थ:- जो कवि नही है उसके द्वारा सभी गुणों से रहित लिखी हुई कविता में यदि राम नाम लिखा होता है, तो उसे बुद्धिमान लोग आदर-सहित कहते और सुनते हैं, क्योंकि संत लोग भंवरे की तरह होते जो केवल सार को ही ग्रहण करते हैं। (३)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रगट एहि माहीं॥<br />
सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा॥ (४)</span></div>
भावार्थ:- जबकि मेरे द्वारा लिखी इस कविता में एक भी रस नहीं है, इसमें श्रीराम जी की आभा प्रकट है। मेरे मन में यही एक भरोसा है कि अच्छी संगति से हर किसी को प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। (४)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥<br />
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥ (५)</span></div>
भावार्थ:- सुगंधित वायु की संगति पाकर धुआँ भी अपने कड़वे सहज स्वभाव को त्याग देता है, मेरे द्वारा लिखी रचना भले ही सुन्दर न हो, परन्तु इसमें संसार का कल्याण करने वाली राम कथा रूपी उत्तम वस्तु का वर्णन अवश्य किया गया है। (५)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="color: magenta; font-size: x-large;">॥ छंद ॥</span><br />
<span style="color: #3333ff;">मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।<br />
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥<br />
<br />
प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी।<br />
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥ </span></div>
भावार्थ:- तुलसी दास जी कहते हैं कि श्री रघुनाथ जी की कथा सभी का कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने वाली है। यह कुरुप कविता पतित-पावन गंगा नदी की धारा के समान टेड़ी-मेड़ी है। प्रभु श्रीरघुनाथ जी की सुंदर संगति से यह कविता सुंदर और सज्जनों के मन को भाने वाली हो जाती है, जिस प्रकार शमशान की अपवित्र राख भी श्रीमहादेव जी के अंग की संगति पाकर स्मरण करने मात्र से पवित्र करने वाली हो जाती है। <br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="color: red;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></span><br />
<span style="color: magenta;">प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।<br />
दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥ (१० क)</span></div>
भावार्थ:- श्रीराम जी के नाम की संगति से मेरी यह रचना सभी को अत्यन्त प्रिय लगेगी। जिस प्रकार मलय पर्वत की संगति से लकड़ी भी चंदन बनकर वंदनीय हो जाती है, तब लकड़ी की निरर्थकता का कोई विचार नहीं करता है। (१०क)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: magenta;">स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।<br />
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥ (१० ख)</span></div>
भावार्थ:- जिस प्रकार काली गाय का दूध उज्ज्वल और बहुत गुणकारी समझकर सब लोग उसे पीते हैं, उसी प्रकार देहाती भाषा में होने पर भी श्रीसीताराम जी के नाम का गुणगान बुद्धिमान लोग बड़े उत्साह से गायेंगे और सुनेंगे। (१०ख)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><span class="Apple-style-span" style="color: #274e13;">॥ चौपाई ॥ </span></span><br />
<span style="color: #3333ff;">मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥<br />
नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥ (१)</span></div>
भावार्थ:- जिस प्रकार मणि, माणिक और मोतीयों की शोभा होती है लेकिन साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वह शोभायमान नहीं होती है, जबकि राजा के मुकुट और तरुण स्त्री के शरीर पर सभी प्रकार से शोभायमान होते हैं। (१)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥<br />
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥ (२)</span></div>
भावार्थ:- इसी प्रकार बुद्धिमान लोग कहते हैं कि किसी भी कवि की कविता उत्पन्न कहीं होती है और शोभा अन्य-अन्य जगह पर पाती है। भक्ति के कारण सरस्वती जी सुनते ही ब्रह्म-लोक को छोड़कर दौड़ी हुई आती हैं। (२)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥<br />
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥ (३)</span></div>
भावार्थ:- दौड़ लगाने की थकान केवल रामचरित रूपी सरोवर में बिना नहाये दूर नहीं हो सकती है, जो करोड़ों अन्य उपाय करने से भी दूर नहीं हो सकती है। कवि और पण्डित अपने हृदय में विचार करके कलियुग के पापों को हरने वाले श्रीहरि के यश का गुणगान करते हैं। (३)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥<br />
हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥ (४)</span></div>
भावार्थ:- मनुष्यों के द्वारा सांसारिक गुणगान करने से विधा की देवी सरस्वती जी सिर पीटकर पछताने लगती हैं। बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती जी को स्वाति नक्षत्र के समान कहते हैं। (४)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">जौं बरषइ बर बारि बिचारू। हो हिं कबित मुकुतामनि चारू॥ (५)</span></div>
भावार्थ:- जब मन में श्रेष्ठ विचार रूपी जल बरसता है तब यह मुक्ति स्वरूप कविता मणि के समान सुंदर लगने लगती है। (५)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="color: red;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></span><br />
<span style="color: magenta;">जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग। <br />
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥ (११)</span></div>
भावार्थ:- कविता रूपी मणियों को बुद्धिमान लोग राम चरित्र रूपी सुंदर धागे में पिरोकर, सज्जन लोग अपने निर्मल हृदय में जब धारण करते हैं, तो अत्यन्त अनुराग के रूप में यह मणियाँ शोभायमान होती हैं। (११)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><span class="Apple-style-span" style="color: #274e13;">॥ चौपाई ॥ </span></span><br />
<span style="color: #3333ff;">जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥ <br />
चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़े॥ (१)</span></div>
भावार्थ:- जिन लोगों का जन्म घोर कलियुग में होता हैं, उनके कर्म कौए के समान होते हैं और वेष हंस के समान होता है, ऎसे लोग वेदों के बताये मार्ग को छोड़कर गलत मार्ग पर चलते हैं, वह तो पाखण्ड की मूरत और कलियुग में पाप से भरे घट के समान होते हैं। (१)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥<br />
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरम ध्वज धंधक धोरी॥ (२)</span></div>
भावार्थ:- जो मनुष्य श्रीराम जी के भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो धन के लोभी, क्रोधी और कामनाओं के गुलाम हैं। जो मसखरे हैं, धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले अहंकारी हैं और छल-कपट के बोझ को ढोने वाले हैं, संसार के ऐसे लोगों की गिनती में सबसे पहला मेरा नाम है। (२)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ ॥<br />
ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥ (३)</span></div>
भावार्थ:- यदि मैं अपने सभी अवगुणों का वर्णन करूँगा तो कथा आगे नहीं बढ़ पायेगी। इसलिये मैंने अपने बहुत कम अवगुणों का वर्णन किया है, बुद्धिमान लोग थोड़े ही में समझ जायेंगे। (३)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥<br />
एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥ (४)</span></div>
भावार्थ:- मेरी अनेकों प्रकार की विनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर मुझे दोष नहीं देगा। इतने पर भी जो लोग शंका करेंगे, वह लोग तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और ज़ड़-बुद्धि वाले ही होंगे। (४)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥<br />
कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥ (५)</span></div>
भावार्थ:- मैं न तो कवि हूँ, न ही बुद्धिमान कहलाता हूँ, अपनी बुद्धि के अनुसार ही श्रीराम जी के गुणगान करता हूँ। श्रीरघुनाथ जी के चरित्र की कथा अनन्त है, मेरी बुद्धि संसार में आसक्ति वाली है। (५)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥<br />
समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥ (६)</span></div>
भावार्थ:- जिस प्रकार हवा से सुमेरु जैसे पर्वत उड़ जाते हैं, उस हवा के सामने रूई की क्या मिसाल होगी। श्रीराम जी की प्रभुता असीम हैं, इस कथा को रचने में मेरा मन बहुत सकुचा रहा है। (६)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="color: red;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></span><br />
<span style="color: magenta;">सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।<br />
नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥ (१२)</span></div>
भावार्थ:- सरस्वती जी, शेषनाग जी, शिव जी, ब्रह्मा जी, शास्त्र, वेद और पुराण भी सब 'नेति-नेति' कहकर सदैव जिनका गुणगान किया करते हैं। (१२)<br />
<br />
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><span class="Apple-style-span" style="color: #274e13;">॥ चौपाई ॥ </span></span><br />
<span style="color: #3333ff;">सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥<br />
तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥ (१)</span></div>
भावार्थ:- प्रभु श्रीरामचन्द्र जी की प्रभुता को सभी जानते हैं, जबकि कहे बिना कोई नहीं रह पाता है। संसार में भजन का प्रभाव का कारण वेदों में अनेकों भाषा और अनेक प्रकार से बताया गया है। (१)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥<br />
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥ (२) </span></div>
भावार्थ:- प्रभु एक हैं, जिनमें कोई कामना नहीं होती है, जिनका कोई स्वरूप नहीं है, जिनका कोई नाम नहीं है, जो अजन्मा है, जो सच्चिदानन्द और परमधाम हैं, और जो सब जगह रहते हैं एवं जो विश्व स्वरूप हैं, उन्हीं भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके अनेकों प्रकार की लीला की है। (२)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥<br />
जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥ (३) </span></div>
भावार्थ:- भगवान की लीला केवल भक्तों के हित के लिए ही होती है, क्योंकि भगवान परम-कृपालु हैं और शरणागत भक्तों से अतिशय प्रेम करते हैं। जिनकी भक्तों के प्रति ममता रहती हैं और भक्तों के बहुत प्रिय हैं, उनकी दया और करुणा का वर्णन कोई नही कर सकता है। (३)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥<br />
बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥ (४)</span></div>
भावार्थ:- प्रभु श्रीरघुनाथ जी दीनों पर दया करने वाले दीन-वत्सल, सरल स्वभाव वाले सर्व-शक्तिमान और सभी के स्वामी हैं। बुद्धिमान लोग यह जानकर श्रीहरि के गुणों का वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र और उत्तम फल पाकर अपने जीवन को सफल बनाते हैं। (४)<br />
<br />
<div align="center">
<span style="color: #3333ff;">तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥<br />
मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥ (५)</span></div>
भावार्थ:- उसी शक्ति से मैं श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर झुकाकर श्री रघुनाथजी के गुणों की कथा कहता हूँ। इसी विचार से अनेकों मुनियों ने पहले श्रीहरि की महिमा गायी है, उन्ही भाई लोगो के बताये मार्ग पर चलकर मेरा भी रास्ता सुगम हो जायेगा। (५)<br />
<br />
<div align="center">
<div align="center">
<span class="Apple-style-span" style="color: red;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;">॥ दोहा ॥</span></span><br />
<span style="color: magenta;">अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।<br />
चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥ (१३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- जो अत्यन्त बड़ी श्रेष्ठ नदियाँ हैं, यदि राजा उन पर पुल बाँध देता है, तो अत्यन्त छोटी चींटी भी उस पुल पर चढ़कर बिना किसी परिश्रम के नदी को पार कर जाती हैं। (१३)</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
</div>
<div align="center">
<span style="color: #006600;">॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</span></div>
<br /></div>
Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5930906140249394012.post-36622207099364884222013-12-25T14:53:00.000+05:302014-05-24T22:14:44.673+05:30॥ कवि वंदना ॥<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><span class="Apple-style-span" style="color: #274e13;">॥ चौपाई ॥</span></span><br />
<span style="color: #3333ff;">एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥<br />ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥ (१)</span></div>
<span style="text-align: left;">भावार्थ:- इसी प्रकार मन की शक्ति के सहारे मैं श्रीरघुनाथ जी की सुन्दर मधुर कथा कहता हूँ। जिस प्रकार व्यास आदि अनेकों श्रेष्ठ कवियों ने बड़े आदर-सहित श्रीहरि के सुन्दर यश का वर्णन किया है। (१)</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;"><br /></span>
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥ (२)</span></div>
भावार्थ:- उन सभी के चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ, जो मेरे सभी मनोरथों को पूरा करेंगे, कलियुग के भी उन कवियों को मैं प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने श्री रघुनाथ जी के गुणों का गुणगान किया है। (२)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें॥ (३)</span></div>
भावार्थ:- जो बड़े बुद्धिमान स्वभाव से कवि हैं, जिन्होंने अनेक भाषा में भगवान के चरित्रों का वर्णन किया है, जो कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होंगे, उन सभी को मैं निष्कपट भाव से प्रणाम करता हूँ। (३)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥ (४)</span></div>
भावार्थ:- आप सभी प्रसन्न होकर मुझे यह वरदान दीजिए कि साधु समाज में मेरी कविता का सम्मान हो, क्योंकि जिस कबिता का बुद्धिमान लोग आदर नहीं करते, मूर्ख कवि ही ऎसी रचना करने में व्यर्थ परिश्रम करते हैं। (४)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥ (५)</span></div>
भावार्थ:- कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम होती है, जो गंगाजी की तरह सभी का हित करने वाली होती है। श्री रामचन्द्रजी की कीर्ति तो अति सुंदर सभी का कल्याण करने वाली है, मैं असमंजस की स्थिति में हूँ कि मेरी कविता इन दोनों बातों से मेल करेगी या नहीं, मुझे इस बात का अंदेशा है। (५)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">तुम्हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥ (६)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- हे कवियों! आपकी कृपा से मेरी कबिता उसीप्रकार सुलभ हो सकती है, जिसप्रकार रेशम की सिलाई टाट के कपड़े पर सुहावनी लगती है। (६)</div>
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: red; font-size: x-large;">॥ दोहा ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥ (१४ क)</span></div>
भावार्थ:- बुद्धिमान लोग उसी कविता का आदर करते हैं, जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्र का वर्णन हो तथा जिसे सुनकर शत्रु भी स्वाभाविक शत्रुता को भुलाकर प्रशंसा करने लगें। (१४ क)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">सो न होई बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥ (१४ ख)</span></div>
भावार्थ:- ऐसी कविता कभी भी बिना निर्मल बुद्धि के नहीं होती है लेकिन मेरी बुद्धि का बल बहुत ही कम है, इसलिए हे कवियों! मैं बार-बार आपसे विनती करता हूँ कि आप मुझ पर कृपा करें, जिससे मैं प्रभु के यश का वर्णन कर सकूँ। (१४ ख)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">बालबिनय सुनि सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल॥ (१४ ग)</span></div>
भावार्थ:- कवि और पण्डितजन आप जो राम चरित्र रूपी मानसरोवर के सुंदर हंस हैं, आप एक अबोध बालक के समान मेरी विनती सुनकर और मेरी सुंदर रुचि देखकर मुझ पर कृपा करें। (१४ ग)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: #274e13;">॥ हरि ॐ तत सत ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
</div>
Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5930906140249394012.post-70943484420888649902013-12-24T12:56:00.000+05:302014-05-24T22:17:37.164+05:30॥ वाल्मीकि, वेद, देवताओं की वंदना ॥<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7NIfQkZHZkogTEGo9nm6R1PBe4siWBDxTbe6T8LzB4zt0zVcdfJ8jVPUf-ghanKs252YcLsD2W3Z3BgAOFkYEnxfvy9hx-dzlMPha4Gq7U3kdc-9baSEy8wZFU5GWhPJ84SGXDD_O3yI/s1600/Ram+(14).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7NIfQkZHZkogTEGo9nm6R1PBe4siWBDxTbe6T8LzB4zt0zVcdfJ8jVPUf-ghanKs252YcLsD2W3Z3BgAOFkYEnxfvy9hx-dzlMPha4Gq7U3kdc-9baSEy8wZFU5GWhPJ84SGXDD_O3yI/s1600/Ram+(14).jpg" height="618" width="640" /></a></div>
<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: purple; font-size: x-large;">॥ सोरठा ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित॥ (१४ घ)</span></div>
भावार्थ:- मैं उन वाल्मीकि मुनि के चरण कमलों की वंदना करता हूँ, जिन्होंने अति निर्मल रामायण की रचना की है, जो सभी दुष्ट स्वभाव वालों को दोष मुक्त करके अति कोमल और सुन्दर बनाने वाली है। (१४ घ)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥ (१४ ड)</span></div>
भावार्थ:- मैं चारों वेदों की वन्दना करता हूँ, जो उन लोगों को भवसागर को आसानी से पार कराने वाले जहाज के समान हैं, जिनको श्री रघुनाथजी के निर्मल यश का गुणगान करने में सपने भी बुरा नहीं लगता है। (१४ ड)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहिं कीन्ह जहँ।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥ (१४ च)</span></div>
भावार्थ:- मैं ब्रह्माजी के चरण रज की वन्दना करता हूँ, जिन्होंने समुद्र के समान सृष्टि की रचना की है, जहाँ से संत स्वभाव अमृत, चन्द्रमा और कामधेनु उत्पन्न हुए हैं और दुष्ट स्वभाव विष और मदिरा उत्पन्न हुए है। (१४ च)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: red; font-size: x-large;">॥ दोहा ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि॥ (१४ छ)</span></div>
भावार्थ:- मैं देवताओं, ब्राह्मणों, पंडितजन और ग्रहों की हाथ जोड़कर सभी के चरणों की वंदना करके कह रहा हूँ कि आप प्रसन्न होकर मेरे सारे सुंदर मनोरथों को पूर्ण करें। (१४ छ)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #274e13; font-size: x-large;">॥ चौपाई ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥ (१)</span></div>
भावार्थ:- मैं फिर से दोनों पावन और मनोहर चरित्र वाली सरस्वती जी और देव नदी गंगा जी की वंदना करता हूँ, एक के जल पीने मात्र से सभी पाप नष्ट हो जाते है और दूसरी के गुणगान और सुनने मात्र से अज्ञान नष्ट हो जाता है। (१)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥ (२)</span></div>
भावार्थ:- मैं अपने गुरु पिता शंकर जी और माता पार्वती जी को प्रणाम करता हूँ जो दीन बन्धुओं पर नित्य दया करने वाले हैं, जो सीतापति श्री रामचन्द्रजी के सेवक, स्वामी और सखा हैं मुझ तुलसी दास का सभी प्रकार से वास्तविक रूप में हित करने वाले हैं। (२)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥ (३)</span></div>
भावार्थ:- जिन शिव जी और पार्वती जी ने कलियुग को देखते हुए जगत के हित के लिए साबर मन्त्रों की रचना की, जिन मंत्रों के अक्षर बे-मेल हैं, जिनका न तो कोई सही अर्थ है और न ही उनसे जप होता है, लेकिन श्री शिव जी के प्रताप से उनका प्रत्यक्ष प्रभाव प्रकट होता है। (३)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बस्नउँ रामचरित चित चाऊ॥ (४)</span></div>
भावार्थ:- ऎसे उमापति शिव जी मुझ पर प्रसन्न होकर श्री रामजी की इस कथा को आनन्दकारी और मंगलकारी मूल रूप प्रदान करें। इस प्रकार मैं पार्वती जी और शिव जी का स्मरण करके और उनका प्रसाद पाकर भाव भरे मन से श्री रामजी के चरित्र का वर्णन करता हूँ। (४)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥ (५)</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;"><br />
</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमंगल भागी॥ (६)</span></div>
भावार्थ:- मेरी यह कविता श्री शिव जी की कृपा से ऐसे सुशोभित होगी, जैसे रात्रि को तारों के बीच चन्द्रमा सुशोभित होता है, जो इस कथा को प्रेम सहित एवं सावधानी के साथ समझ-बूझकर कहेंगे या सुनेंगे, वह कलियुग के सभी पापों से छूटकर शुभ कल्याण के भागी होकर प्रभु श्री रामचन्द्र जी के चरणों अनुरागी बन जाएँगे। (५,६)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: red; font-size: x-large;">॥ दोहा ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥ (१५)</span><br />
<div>
<span style="text-align: left;">भावार्थ:- यदि सपने में या वास्तव में शिव जी और पार्वती जी मुझ पर प्रसन्न हैं तो जो मेरी इस भाषा के माध्यम से कविता का प्रभाव है, वह सब सच हो जायेगा। </span>(१५)</div>
<div>
<br /></div>
</div>
<div style="text-align: center;">
<span class="Apple-style-span" style="color: #38761d;">॥ हरि ॐ तत सत ॥</span></div>
<br /></div>
Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5930906140249394012.post-16882427174439600442013-12-23T09:54:00.000+05:302014-05-24T22:20:47.640+05:30॥ श्री सियाराम सहित भक्तों की वंदना ॥ <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<br />
<div style="text-align: center;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXufxIdxhFxP9vwiO03gdDWbMSs3-3M4sYTu0kYcW9T1HkVfQosr8i_IKsL45vV9fz7otB5dxSNcKUmQSc2mK0YVLe1RrdXTPrvFENcOfXkoYrVsfO3jY3R-RiqHd-5MVjagGEwRVuEJM/s1600/Ram+(15).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXufxIdxhFxP9vwiO03gdDWbMSs3-3M4sYTu0kYcW9T1HkVfQosr8i_IKsL45vV9fz7otB5dxSNcKUmQSc2mK0YVLe1RrdXTPrvFENcOfXkoYrVsfO3jY3R-RiqHd-5MVjagGEwRVuEJM/s1600/Ram+(15).jpg" height="640" width="626" /></a></div>
<span style="color: #38761d; font-size: x-large;">॥ चौपाई ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">बंदउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥ (१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- मैं अति पावन श्री अयोध्यापुरी और कलियुग के पापों का नाश करने वाली पवित्र सरयू नदी की वन्दना करता हूँ, मैं अवधपुरी के उन नर-नारियों को प्रणाम करता हूँ, जिन पर प्रभु श्री रामचन्द्रजी की ममता कम नहीं है। (१)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥ (२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- मैं सीताजी की निंदा करने वाले जो समस्त पापों से शोक-मुक्त हो गये है जिन्हे प्रभु ने अपने धाम में बसा लिया है, और कौशल्या रूपी पूर्व दिशा (श्रीरामचन्द्र जी रूपी सूर्य को प्रकट करने वाली कोसल्या माता) की वन्दना करता हूँ, जिनकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही है। (२)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी॥ (३)</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">करउँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता॥ (४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- कौशल्या रूपी पूर्व दिशा से विश्व को सुख देने वाले और दुष्ट रूपी कमलों के लिए ओस के समान चन्द्र्मा के सदृश सुन्दर श्रीरामचन्द्र जी प्रकट हुए, सभी रानियों सहित राजा दशरथजी को पुण्य और सुंदर कल्याण की मूर्ति मानकर मैं मन, वचन और कर्म से प्रणाम करता हूँ। अपने पुत्र का सेवक जानकर वे मुझ पर कृपा करें, जिनको रचकर ब्रह्माजी ने भी बड़ाई पाई तथा जो श्रीरामचन्द्र जी के माता और पिता होने के कारण महिमा मण्डित हैं। (३,४)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #660000; font-size: x-large;">॥ सोरठा ॥ </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥ (१६)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- मैं अवध के राजा श्री दशरथ जी की वन्दना करता हूँ, जिनका श्रीरामजी के चरणों में सच्चा प्रेम था, जिन्होंने दीनदयाल प्रभु के बिछुड़ते ही अपने प्यारे शरीर को एक मामूली तिनके के समान त्याग दिया। (१६)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #38761d; font-size: x-large;">॥ चौपाई ॥ </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥ (१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- मैं परिवार सहित राजा जनक जी को प्रणाम करता हूँ, जिनका श्री रामजी के चरणों में दिव्य प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भोग में छिपा रखा था, लेकिन श्री रामचन्द्रजी को देखते ही वह प्रकट हो गया। (१)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥ (२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- सभी भाइयों में सबसे पहले मैं श्री भरतजी के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जिनका नियम और व्रत वर्णन नहीं किया जा सकता है। जिनका मन श्री रामजी के चरण कमलों में भंवरे के समान लुभाया हुआ है, जो कभी उनका साथ नहीं छोड़ता है। (२)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">बंदउँ लछिमन पद जल जाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका॥ (३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- मैं श्री लक्ष्मणजी के चरण कमलों को प्रणाम करता हूँ, जो शीतल सुंदर और भक्तों को सुख देने वाले हैं। श्री रघुनाथजी की कीर्ति रूपी विमल ध्वजा में यश रूपी ध्वजा दंड के समान है। (३)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सेष सहस्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर॥ (४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- जो हजारों सिर वाले और जगत को धारण करने वाले शेषनाग जी हैं, जिन्होंने पृथ्वी का भय दूर करने के लिए अवतार लिया है, गुणों की खान कृपा के सिन्धु सुमित्रानंदन श्री लक्ष्मणजी मुझ पर सदा प्रसन्न रहें। (४)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">महाबीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥ (५)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- मैं श्री शत्रुघ्नजी के चरणकमलों को प्रणाम करता हूँ, जो बड़े वीर, सुशील और श्री भरत जी के पीछे चलने वाले हैं। मैं महावीर श्री हनुमानजी की विनती करता हूँ, जिनके यश का श्री रामचन्द्रजी ने स्वयं अपने श्रीमुख से वर्णन किया है। (५)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #660000; font-size: x-large;">॥ सोरठा ॥ </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥ (१७)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- मैं पवनपुत्र श्री हनुमान जी को प्रणाम करता हूँ, जो दुष्ट रूपी वन को भस्म करने के लिए अग्निरूप हैं, जो ज्ञान की मूर्ति हैं और जिनके हृदय रूपी भवन में धनुष-बाण धारण किए श्री रामजी सदैव निवास करते हैं। (१७)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #38761d; font-size: x-large;">॥ चौपाई ॥ </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥ (१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- वानरों के राजा सुग्रीव जी, रीछों के राजा जामबन्त जी, राक्षसों के राजा विभीषण जी और अंगद जी आदि और जितना भी वानरों का समाज है, सबके सुंदर चरणों की मैं वदना करता हूँ, जिन्होंने अधम शरीर में रहते हुए भी श्रीरामचन्द्र जी का सानिध्य को प्राप्त किया। (१)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥ (२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुर समेत जितने श्रीराम जी के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलों की वंदना करता हूँ, जो श्रीराम जी के निष्काम सेवक हैं। (२)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">प्रनवउँ सबहि धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥ (३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- शुकदेव जी, सनकादि, नारद मुनि आदि जितने भक्त और परम ज्ञानी श्रेष्ठ मुनिजन हैं, मैं धरती पर सिर नभाकर उन सभी को प्रणाम करता हूँ, हे मुनीश्वरों! आप सब मुझे अपना दास समझकर कृपा करें। (३)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥ (४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- राजा जनक की पुत्री, जगत की माता और करुणा निधान श्रीरामचन्द्र जी की अति प्रिय श्री जानकी जी के दोनों चरण कमलों को मन से प्रणाम करता हूँ, जिनकी कृपा से मुझे निर्मल बुद्धि की प्राप्ति हो। (४)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">राजीवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक॥ (५)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- एक बार फिर से मैं मन, वचन और कर्म से कमल नयन, धनुष-बाणधारी, भक्तों की समस्त विपत्ति का नाश करने वाले और उन्हें सुख प्रदान करने वाले भगवान् श्री रघुनाथ जी के सर्व समर्थ चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। (५)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: red; font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥ (१८)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जल की लहर के समान कहने में तो अलग-अलग हैं, परन्तु वास्तव में एक ही हैं, उन श्रीसीताराम जी के चरणों की मैं वंदना करता हूँ, जिन्हें दीन-दुःखी अतिशय प्रिय हैं। (१८)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #274e13;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #274e13;">॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</span></div>
</div>
Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5930906140249394012.post-50506595844454517532013-12-22T09:31:00.000+05:302014-05-24T22:22:44.220+05:30॥ नाम वंदना और राम नाम की महिमा ॥ <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYvwvZuiiMaCRW8YkOLRYEpdRriHHMqom7YviC-v1oh4_-5UgnJ0dLvlNW8msS_hlqAcOlPTkki9-a0KNoHWoJflfkNiIvrz0FNr8DXZmZ62HtywEQFMxj0prn5C1D35uXg9LL3XxWBFU/s1600/Ram+(16).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYvwvZuiiMaCRW8YkOLRYEpdRriHHMqom7YviC-v1oh4_-5UgnJ0dLvlNW8msS_hlqAcOlPTkki9-a0KNoHWoJflfkNiIvrz0FNr8DXZmZ62HtywEQFMxj0prn5C1D35uXg9LL3XxWBFU/s1600/Ram+(16).jpg" /></a></div>
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #274e13; font-size: x-large;">॥ चौपाई ॥ </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥(१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- मैं श्रीरघुनाथ जी के "राम" नाम की वंदना करता हूँ, जो कि अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा को प्रकाशित करने वाला है। "राम" नाम ब्रह्मा, विष्णु, महेश और समस्त वेदों का प्राण स्वरूप है, जो कि प्रकृति के तीनों गुणों से परे दिव्य गुणों का भंडार है।(१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥(२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- "राम" नाम वह महामंत्र है जिसे श्रीशंकर जी निरन्तर जपते रहते हैं, जो कि जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होने के लिये सबसे आसान ज्ञान है। "राम" नाम की महिमा को श्रीगणेश जी जानते हैं, जो कि इस नाम के प्रभाव के कारण ही सर्वप्रथम पूजित होते हैं।(२)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय संग भवानी॥(३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- सृष्टि के प्रथम कवि श्रीवाल्मीकि जी ने "राम" नाम के प्रताप को जाना, जो कि उल्टा नाम 'मरा' जपकर पवित्र हो गये। भगवान के अन्य नाम की अपेक्षा "राम" नाम हजार नाम के समान है, श्रीशिव जी के मुख से सुनकर पार्वती जी सदा अपने पति के साथ सदैव इस नाम का जप किया करती हैं।(३)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥(४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- पार्वती जी की "राम" नाम से प्रीति देखकर श्रीशिव जी ने हर्षित होकर पतिव्रताओं में श्रेष्ठ पार्वती जी को अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार किया। "राम" नाम के प्रभाव को श्रीशिव जी भली प्रकार से जानते हैं, जिसके कारण कालकूट विष-फल भी अमृत-फल हो गया।(४)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: red; font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥(१९)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- तुलसीदासजी कहते हैं श्रीरघुनाथ जी की भक्ति वर्षा ऋतु के समान है, उत्तम कोटि के सेवक धान के समान हैं और "राम" नाम के दो सुंदर अक्षर सावन-भादो के महीने के समान हैं।(१९)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #274e13; font-size: x-large;"><b>॥ चौपाई ॥ </b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">ससुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥(१)</span></div>
<div style="text-align: center;">
भावार्थ:- "राम नाम के दोनों अक्षर अत्यन्त मधुर और मनोहर हैं, जो वर्णमाला रूपी शरीर के नेत्रों के समान हैं। "राम" नाम सभी भक्तों को स्मरण करने में आसान और सुख को प्रदान करने वाला है, जो इस लोक में सुख देने के साथ-साथ भगवान के दिव्य धाम की प्राप्ति भी कराता है।(१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥(२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- तुलसी दास को "राम" नाम सुनना, बोलना और स्मरण करना श्रीराम और लक्ष्मण के समान ही प्यारा है। "राम" नाम का वर्णन करने में अर्थ और फल में भिन्नता जान पड़ती है, लेकिन यह जीव और ब्रह्म को समान भाव से सदैव एक रूप-रस में रखने वाला है।(२)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन॥(३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- "राम" नाम के दोनों अक्षर नर और नारायण के समान सहृदय भाई स्वरूप हैं, जो कि संसार के पालनकर्ता और विशेष रूप से भक्तों की रक्षा करने वाले हैं। यह दोनों अक्षर भक्ति रूपी सुंदर स्त्री के कर्णफूल रूपी सुंदर आभूषण के समान हैं और संसार के लिये कल्याणकारी निर्मल चन्द्रमा और सूर्य के समान हैं।(३)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">जन मन मंजु कंज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥(४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- "राम" नाम मोक्ष रूपी अमृत फल के स्वाद के समान तृप्त करने वाला है, जो कि कच्छप और शेषनाग जी के समान पृथ्वी को धारण करने वाला है। यह भक्तों के मन रूपी सुंदर कमल पुष्प पर विहार करने वाले भंवरे के समान है और बुद्धि रूपी यशोदा के लिए श्रीकृष्ण और बलराम जी के समान आनंद देने वाला है।(४)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: red; font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥(२०)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- तुलसीदासजी कहते हैं- "राम" नाम के दोनों अक्षरों में से एक श्रीरघुनाथ जी के छत्र के रूप में और दूसरा मुकुट की मणि के के रूप में शोभायमान होता है।(२०)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #274e13; font-size: x-large;">॥ चौपाई ॥ </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥(१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- नाम और नामी समझने में दोनों एक जैसे हैं लेकिन दोनों की प्रीति स्वामी और सेवक के समान अनुगमन करने वाली है, प्रभु श्रीराम जी भी अपने "राम" नाम का ही अनुगमन करते हैं यानि नाम लेते ही वहाँ प्रकट हो जाते हैं। नाम और रूप दोनों ही भगवान की उपाधि हैं, इन दोनों उपाधियों का वर्णन नहीं किया जा सकता है, इनका कोई आरम्भ नहीं है, केवल नाम रूप से साधना करने से ही इनका दिव्य अविनाशी स्वरूप जानने में आ सकता है।(१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥(२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- इनमें से किसी को छोटा या बड़ा कहना अपराध है, इनके गुणों का भेद साधु पुरुषों से सुनकर ही समझ में आ सकता है। रूप को नाम के अधीन होकर ही देखा जा सकता है, नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता है।(२)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥(३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- नाम के बिना रूप की विशिष्टता को जाना नहीं जा सकता है, इसे हथेली पर रखकर भी पहचाना नहीं जा सकता है। रूप को देखे बिना भी नाम का स्मरण करने से विशेष प्रेम के साथ वह रूप हृदय में प्रकट हो जाता है।(३)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥(४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- नाम और रूप की विशेषता को कहा नहीं जा सकता है, यह समझने आने पर ही सुख देने वाला होता है लेकिन इसका वाणी से वर्णन नहीं किया जा सकता है। नाम ही निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रहम के बीच में एकमात्र प्रिय मित्र है, और ब्रह्म का यथार्थ ज्ञान कराने वाला निपुण अनुवादक है।(४)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: red; font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥(२१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं, "राम" नाम की मणि को मुख रूपी द्वार की जिव्हा रूपी देहलीज पर दीप रूप में धारण करने से अन्दर और बाहर चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश हो जाता है।(२१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #274e13; font-size: x-large;">॥ चौपाई ॥ </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥(१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- योग में स्थित पुरुष अपनी जिव्हा से निरन्तर नाम जपने से वैराग्य को धारण करके संसार के सभी प्रपंचो से मुक्त होकर मोह रूपी रात्रि से जाग जाते हैं। नाम रूपातीत, अतुलनीय, अनिर्वचनीय, अनामय और ब्रह्मसुख की अनुभूति कराने वाला है।(१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥(२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- जो मनुष्य परमात्मा के दिव्य रहस्य को जानने की इच्छा रखते हैं, वह नाम को अपनी जिव्हा से जपकर परमात्मा के दिव्य रहस्य को जान जाते हैं। सांसारिक सुखों को चाहने वाले साधक भी निरन्तर नाम जप करते हुए अनेक प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त करके सिद्ध हो जाते हैं।(२)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥(३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- अपने दुखों से मुक्ति चाहने वाले मनुष्य भी नाम जप करते हैं, तो उनके बड़े से बड़े संकट मिट जाते हैं और वह सुख की प्राप्ति करते हैं। संसार में चार प्रकार के राम भक्त होते हैं (1) "अर्थार्थी" यानि धन-संपत्ति की चाह रखने वाले, (२) "आर्त" यानि अपने दुखों से मुक्ति चाहने वाले, (३) "जिज्ञासु" यानि भगवान को जानने की इच्छा वाले, (४) "ज्ञानी" यानी भगवान को तत्व रूप से जानने वाले, यह चारों ही पुण्यात्मा, पाप-रहित और उदार हृदय वाले होते हैं।(३)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥(४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- इन चारों ही बुद्धिमान भक्तों का नाम ही आधार होता है, इनमें से ज्ञानी भक्त भगवान को विशेष प्रिय होते हैं। वैसे तो चारों युगों में चारों ओर नाम का प्रभाव होता है, परन्तु कलियुग में विशेष रूप से नाम के अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा उपाय नहीं है।(४)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: red; font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन॥(२२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- जो मनुष्य सभी प्रकार की भोग और मोक्ष की कामनाओं से रहित होकर राम भक्ति का निरन्तर रसपान करते रहते हैं, ऎसे मनुष्यों का मन नाम के सुंदर प्रेम रूपी अमृत के सरोवर में मछली के समान होता है यानि नाम से कभी विलग नहीं होता है।(२२)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #274e13; font-size: x-large;">॥ चौपाई ॥ </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें॥(१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- निर्गुण और सगुण ब्रह्म के दो स्वरूप हैं, इन दोनों स्वरूपों का वाणी से वर्णन नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह अकथनीय है, इनकी गहराई का अध्यन नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह अगाध है, इनका कोई आरम्भ नहीं है क्योंकि यह अनादि है और इनकी कोई मिसाल भी नही दी जा सकती है क्योंकि यह अनुपम है। मेरी बुद्धि के अनुसार नाम इन दोनों से बड़ा है, जिसने अपने बल से दोनों ब्रह्म को अपने वश में कर रखा है।(१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">प्रौढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥(२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- सज्जन व्यक्ति इस बात को मुझ दास की धृष्टता या कल्पना न समझें, मैं अपने मन के विश्वास, प्रेम और रुचि की बात कहता हूँ। निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान उस अप्रकट अग्नि के समान है, जो लकड़ी के अंदर है परन्तु दिखती नहीं है और सगुण ब्रह्म उस प्रकट अग्नि के समान है, जो प्रत्यक्ष दिखलायी देती है।(२)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनँद रासी॥(३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- निर्गुण और सगुण ब्रह्म दोनों ही जानने में सुगम नहीं हैं, लेकिन नाम जप से दोनों को आसानी से जाना जा सकता हैं, इसी कारण मैंने "राम" नाम को निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म राम से बड़ा कहा है, जबकि ब्रह्म एक ही है जो कि व्यापक, अविनाशी, सत्य, चेतन और आनन्द की खान है।(३)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥(४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- समस्त विकारों से मुक्त भगवान सभी के हृदय में रहते हैं फिर भी संसार के सभी जीव दीनहीन और दुःखी हैं। नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर श्रद्धा-पूर्वक नाम जपने से ब्रह्म उसी प्रकार प्रकट हो जाता है, जिस प्रकार रत्न की जानकारी होने से उसका मूल्य प्रकट हो जाता है।(४)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥(२३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- इस प्रकार निर्गुण ब्रह्म से नाम का प्रभाव अत्यंत बड़ा है। अब अपने विचार के अनुसार कहता हूँ, कि नाम सगुण ब्रह्म राम से भी बड़ा है।(२३)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #274e13; font-size: x-large;">॥ चौपाई ॥ </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥(१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- श्रीरामचन्द्र जी ने भक्तों के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके स्वयं कष्ट सहकर साधु पुरुषों को सुखी किया, परन्तु भक्तगण प्रेम-सहित नाम जप करते हुए अनायास ही आनन्द को प्राप्त करके प्रभु के धाम को प्राप्त हो जाते हैं।(१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">रिषि हित राम सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी॥(२)</span></div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">भंजेउ राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम प्रतापू॥(३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- श्रीराम जी ने एक तपस्वी की स्त्री अहिल्या का ही उद्धार किया था, लेकिन नाम ने तो करोड़ों दुष्टों की बिगड़ी बुद्धि को ही सुधार दिया। श्रीराम जी ने ऋषि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए यक्ष सुकेतु की कन्या ताड़का को उसके पुत्र मारीच और सुबाहु का सेना सहित नष्ट किया था, लेकिन नाम तो भक्तों के दोषों का, दुःखों का और बुरी कामनाओं का इस तरह नष्ट कर देता है जैसे सूर्य अन्धकार को नष्ट कर देता है। श्रीराम जी ने तो शिव धनुष का ही भंजन किया था, लेकिन नाम का प्रताप तो संसार के सभी प्रकार के भय का भंजन करने वाला है।(२,३)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">निसिचर निकर दले रघुनंदन। नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥(४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- प्रभु श्रीराम जी ने भयानक दण्डक वन को सुहावना बनाया था, परन्तु नाम तो असंख्य मनुष्यों के मनों को पावन करने वाला है। श्रीरघुनन्दन जी ने पापीयों के दल का नाश किया था, लेकिन नाम तो कलियुग के समस्त पापों की जड़ को ही नाश करने वाला है।(४)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: red; font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥(२४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- श्रीरघुनाथ जी ने तो शबरी, जटायु आदि उत्तम भक्तों का ही उद्धार किया था, लेकिन नाम तो अनगिनत दुष्टों का उद्धार करने वाला है, नाम के गुणों की कथा तो वेदों में भी वर्णित है।(२४)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #274e13; font-size: x-large;">॥ चौपाई ॥ </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥(२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- श्री रामजी ने तो सुग्रीव और विभीषण दोनों को ही अपनी शरण में रखा था यह सभी जानते हैं, लेकिन नाम तो अनेक गरीबों को शरण देने वाला है। नाम का यह सुंदर वर्णन संसार में विशिष्ट रूप से वेदों में स्थित है।(१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">राम भालु कपि कटुक बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नामु लेत भवसिन्धु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥(२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- श्रीरामजी को तो भालू और बंदरों की सेना को एकत्र करने में और समुद्र पर पुल बाँधने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ा था, लेकिन नाम लेने मात्र से संसार समुद्र ही सूख जाता है, सज्जन मनुष्यों मन में विचार तो करो।(२)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">राजा रामु अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥(३)</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सेवक सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें॥(४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- श्रीरामचन्द्र जी ने तो कुटुम्ब सहित रावण को युद्ध में मारकर सीता सहित उन्होंने अपने नगर अयोध्या में प्रवेश किया था। राम राजा बने, अवध उनकी राजधानी बनी, देवता और मुनि सुंदर वाणी में जिनका गुणगान करते हैं, लेकिन भक्त लोग प्रेम-पूर्वक नाम के स्मरण करने मात्र से बिना परिश्रम के मोह रूपी प्रबल सेना पर विजय प्राप्त करके प्रेम-मग्न होकर सुख में विचरण करते हैं, नाम के प्रसाद से उन्हें सपने में भी कोई चिन्ता नहीं सताती है।(३,४)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: red; font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥(२५)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- इस प्रकार "राम" नाम निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म दोनों से बड़ा है जो कि वरदान देने वालों को भी वर प्रदान करने वाला है। श्रीशंकर जी ने सौ करोड़ राम चरित्र में से इस "राम" नाम को सार रूप में चुनकर अपने हृदय में धारण किया हुआ है।(२५)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #274e13; font-size: x-large;"><b>॥ चौपाई ॥ </b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥(१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- नाम के प्रसाद से ही शंकर जी अविनाशी हैं और अमंगलकारी वेष धारण करने पर भी मंगलकारी खजाना हैं। शुकदेव जी, सनकादिक, सिद्ध, मुनि और योगीजन नाम के ही प्रसाद से ब्रह्मानन्द का भोग करते रहते हैं।(१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥(२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- नारद जी ने नाम के प्रताप को जाना है, "हरि" यानि विष्णु भगवान सारे संसार को प्यारे हैं, विष्णु भगवान को "हर" यानि महादेव जी प्यारे हैं लेकिन नारद जी तो विष्णु भगवान और महादेव जी दोनों के ही प्रिय हैं। नाम के जपने से ही भगवान ने प्रहलाद पर कृपा की जो प्रभु के भक्तों के भी शिरोमणि बन गये।(२)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥(३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- ध्रुव जी ने सोतेली माता के वचनों से दुःखी होकर सकाम भाव से प्रभु के नाम का जाप करके अचल अनुपम स्थान ध्रुवलोक प्राप्त किया। हनुमान जी ने पावन नाम का स्मरण करके श्रीराम जी को अपने वश में कर रखा है।(३)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥(४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- नीच अजामिल, गज और वेश्या भी श्री हरि के नाम के प्रभाव से पाप-मुक्त हो गये। मैं नाम की महिमा कहाँ तक कहूँ, राम जी भी अपने नाम के गुणों का वर्णन नहीं कर सकते हैं।(४)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: red; font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥(२६)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- कलियुग में "राम" नाम मनवांछित फल देने वाला कल्पवृक्ष है और कलियुग में सभी पापों से मुक्त करने वाला है। मैं भाँग के समान तुलसी दास नाम के स्मरण मात्र से प्रभु प्रिया पवित्र तुलसी के समान हो गया।(२६)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #274e13; font-size: x-large;">॥ चौपाई ॥ </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥(१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- चारों युगों में, तीनों काल में और तीनों लोकों में नाम को जपकर जीव शोक-रहित हुए हैं। वेद, पुराण और संतों का भी यही मत है कि समस्त पुण्यों का फल श्रीराम जी की भक्ति प्राप्त करना है।(१)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">ध्यानु प्रथम जुग मख बिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना॥(२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- सत्य-युग में ध्यान से, त्रेता-युग में यज्ञ से और द्वापर-युग में पूजन से भगवान की भक्ति प्राप्त होती हैं, परन्तु कलियुग केवल पाप की जड़ अत्यन्त गह्री और मलिन होती हैं, इस युग में मनुष्यों का मन पाप रूपी समुद्र में मछली के समान होता है, अर्थात पाप से कभी अलग होना ही नहीं चाहता है।(२)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥(३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- ऐसे घोर कलियुग के समय में तो "राम" नाम ही एकमात्र कल्पवृक्ष है, जो स्मरण करते ही संसार के समस्त जंजालों को नष्ट करने वाला है। कलियुग में "राम" नाम मनवांछित फल देने वाला है, यह भगवान के दिव्य धाम को पहुँचाने वाला परम हितैषी और इस संसार में माता-पिता के समान पालन और रक्षण करने वाला है।(३)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥(४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- कलियुग में न तो कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है, केवल "राम" नाम ही एकमात्र आधार है। जिस प्रकार कपटी कालनेमि को मारने में श्रीहनुमान जी समर्थ हैं उसी प्रकार बुद्धिमान मनुष्य कलियुग में कालनेमि रूपी कपट को "राम" नाम से मारकर कपट-रहित हो जाते हैं।(४)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: red; font-size: x-large;">॥ दोहा ॥ </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥(२७)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- "राम" नाम नृसिंह भगवान के समान है, कलियुग हिरण्यकशिपु के समान है और नाम जप करने वाले मनुष्य प्रहलाद के समान हैं, यह "राम" नाम देवताओं के शत्रु कलियुग रूपी असुर को मारकर जप करने वालों की सदैव रक्षा करता है।(२७)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #274e13; font-size: x-large;">॥ चौपाई ॥</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥(१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- प्रेम-भाव से, बैर-भाव से, क्रोध-भाव से या आलस्य-भाव से, किसी भी प्रकार से नाम जप दसों दिशाओं में मंगलकारी है। इसी मंगलकारी "राम" नाम का स्मरण करके श्रीरघुनाथ जी के चरण कमलों पर शीश झुकाकर मैं श्रीराम जी के गुणों की व्याख्या करता हूँ।(१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #38761d;">॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</span></b></div>
</div>
Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5930906140249394012.post-6835231236964947822013-12-21T16:44:00.000+05:302020-05-08T16:58:53.395+05:30॥ श्री रामगुण और श्री रामचरित् की महिमा ॥<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhCRnWaXxTJ8QYnH_ppNrRBjufq3mNXacpDvwgNtvrHMLQux-bHi3ySOoqi94Skuu5zF9A7x6ZSVxcP-qrmVpp0hselTyCcVCcn92fgqT9V5ZBZ9AocTVzK9RGc_EEQVFR-nFB5gESbqSY/s1600/Ram%252818%2529.jpg" imageanchor="1"><img border="0" data-original-height="538" data-original-width="413" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhCRnWaXxTJ8QYnH_ppNrRBjufq3mNXacpDvwgNtvrHMLQux-bHi3ySOoqi94Skuu5zF9A7x6ZSVxcP-qrmVpp0hselTyCcVCcn92fgqT9V5ZBZ9AocTVzK9RGc_EEQVFR-nFB5gESbqSY/s640/Ram%252818%2529.jpg" width="491" /></a></div>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #274e13; font-size: x-large;">॥ चौपाई ॥ </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥(२)</span></div>
भावार्थ:- श्रीराम जी मेरी मति को सभी प्रकार से सुधार ही देंगे क्योंकि उनकी कृपा ऎसी है जो कृपा करने से कभी अघाती नहीं है। श्रीराम जी इतने उत्तम स्वामी और दया की खान है कि मुझ जैसे अधम सेवक का भी अपनी देख-रेख में पालन-पोषण करते हैं।(२)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">लोकहुँ वेद सुसाहिब रीती। विनय सुनत पहिचानत प्रीती॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">गनी गरीब ग्राम नर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥(३)</span></div>
भावार्थ:- संसार में अच्छे राजा के लक्षण वेद-शास्त्रों में वर्णित हैं, एक अच्छा राजा वह होता है जो अमीर या गरीब, ग्रामवासी या नगरवासी, बुद्धिमान या मूर्ख और सज्जन या दुर्जन की प्रार्थना को सुनकर उनके प्रेम की पहचान कर लेता है।(३)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥(४)</span></div>
भावार्थ:- मधुर बचन बोलने वाले और कटु बचन बोलने वाले सभी नर-नारी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार ही राजा की सराहना करते हैं लेकिन सुन्दर चरित्र वाला राजा साधु और सज्जन सभी पर ईश्वर का अंश समझकर कृपालु होता है।(४)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥(५)</span></div>
भावार्थ:- सभी की सुनकर उनकी भक्ति, प्रार्थना और चाल को पहचानकर मधुर वाणी से सभी का यथा-योग्य सम्मान करना तो संसारी राजाओं का स्वभाव होता है, जबकि कोशल्या नन्दन श्रीरामचन्द्र जी तो सभी के शिरोमणि हैं।(५)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें॥(६)</span></div>
भावार्थ:- श्रीराम जी तो विशुद्ध प्रेम से ही रीझते हैं, जगत में मुझ से बढ़कर और कौन मलिन मंद्बुद्धि होगा?(६)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: red; font-size: x-large;">॥ दोहा ॥</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: magenta;">सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: magenta;">उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥(२८ क)</span></div>
भावार्थ:- श्रीरामचन्द्र जी ने तो पत्थरों को पानी का जहाज और बंदर-भालुओं को बुद्धिमान मंत्री बना लिया था वह मुझ मूर्ख सेवक की प्रीति और रुचि को जानकर कृपा अवश्य करेंगे।(२८ क)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥(२८ ख)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- मैं कहता हूँ और सभी लोग कहतें हैं कि सीता जी के स्वामी श्रीरामचन्द्र जी का तुलसीदास जैसा सेवक है फिर भी श्रीराम जी इस निन्दा को सहन करते हैं।(२८ ख)</div>
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #274e13; font-size: x-large;"><b>॥ चौपाई ॥</b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥(१)</span></div>
भावार्थ:- यह मेरी बहुत बड़ी धृष्टता और दोष है, मेरे पाप को सुनकर तो नरक ने भी अपनी नाक सिकोड़ ली है यानि नरक में भी मेरे लिए जगह नहीं है। यह समझकर मुझे अपनी कल्पना से ही डर लग रहा है, फिर भी श्रीरामचन्द्र जी ने तो सपने में भी इस पर ध्यान नहीं दिया है।(१)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥(२)</span></div>
भावार्थ:- वरन मेरे प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने तो इस बात को सुनकर, देखकर और अपने सुचित्त रूपी चक्षु से निरीक्षण कर मेरी भक्ति और बुद्धि की सराहना की, क्योंकि मैं चाहे अपने को भगवान का सेवक कहता रहूँ, परन्तु हृदय में तो अपने को उनका सेवक बनने योग्य नहीं मानकर पापी और दीन ही मानता हूँ, श्री रामचन्द्रजी दास के हृदय की स्थिति जानकर रीझ जाते हैं।(२)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली॥(३)</span></div>
भावार्थ:- प्रभु के चित्त में अपने भक्तों की हुई भूल-चूक याद नहीं रहती और उनके हृदय की अच्छाई को सौ-सौ बार याद करते रहते हैं। जिस पाप के कारण उन्होंने बालि को व्याध की तरह मारा था, वैसी ही कुचाल फिर सुग्रीव ने चली।(३)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहूँ सो न राम हियँ हेरी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">ते भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥(४)</span></div>
भावार्थ:- वही करनी विभीषण की थी, परन्तु श्री रामचन्द्रजी ने स्वप्न में भी उसका मन में विचार नहीं किया। उलटे भरतजी से मिलने के समय श्री रघुनाथजी ने उनका सम्मान किया और राजसभा में भी उनके गुणों का बखान किया।(४)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: red; font-size: x-large;"><b>॥ दोहा ॥</b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">तुलसी कहूँ न राम से साहिब सील निधान॥(२९ क)</span></div>
भावार्थ:- प्रभु श्री रामचन्द्रजी तो वृक्ष के नीचे और पेड़ों की शाखाओं पर कूदने वाले बंदरों को भी उन्होंने अपने समान बना लिया। तुलसीदासजी कहते हैं कि श्री रामचन्द्रजी सरीखे शीलनिधान स्वामी कहीं भी नहीं हैं।(२९ क)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥(२९ ख)</span></div>
भावार्थ:- हे श्री रामजी! आपका कल्याणमय स्वभाव सभी का कल्याण करने वाला है यदि यह बात सच है तो तुलसीदास का भी सदा कल्याण ही होगा।(२९ ख)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥(२९ ग)</span></div>
भावार्थ:- इस प्रकार अपने गुण-दोषों को कहकर और सबको फिर सिर नवाकर मैं श्री रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करता हूँ, जिसके सुनने से कलियुग के पाप नष्ट हो जाते हैं।(२९ ग)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #274e13; font-size: x-large;"><b>॥ चौपाई ॥</b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="background-color: white;"><span style="color: blue;">जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥</span></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="background-color: white;"><span style="color: blue;">कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥(१)</span></span></div>
भावार्थ:- मुनि याज्ञवल्क्य जी ने जो सुन्दर कथा मुनिश्रेष्ठ भारद्वाज जी को सुनाई थी, उसी संवाद को मैं बखान कर कहूँगा, सब सज्जन सुख का अनुभव करते हुए उसे सुनें।(१)<br />
<div>
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥(२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- शिवजी ने पहले इस सुन्दर चरित्र को रचा, फिर कृपा करके पार्वती जी को सुनाया। वही चरित्र शिवजी ने काकभुशुण्डि जी को राम भक्त और अधिकारी पहचानकर दिया।(२)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥(३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- उन काकभुशुण्डि जी से फिर याज्ञवल्क्य जी ने पाया और उन्होंने फिर उसे भारद्वाज जी को गाकर सुनाया। वे दोनों वक्ता और श्रोता समान शील वाले और समदर्शी हैं और श्री हरि की लीला को जानते हैं।(३)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥(४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- वे अपने ज्ञान से तीनों कालों की बातों को हथेली पर रखे हुए आँवले के समान प्रत्यक्ष जानते हैं। और भी जो भगवान की लीलाओं का रहस्य जानने वाले हरि भक्त हैं, वे इस चरित्र को नाना प्रकार से कहते, सुनते और समझते हैं।(४)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: red; font-size: x-large;"><b>॥ दोहा ॥</b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥(30 क)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- फिर वही कथा मैंने वाराह क्षेत्र में अपने गुरुजी से सुनी, परन्तु उस समय मैं लड़कपन के कारण बहुत बेसमझ था, इससे उसको अच्छी तरह समझा नहीं।(३० क)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">किमि समुझौं मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥(30 ख)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- श्री रामजी की गूढ़ कथा के कहने वाले और सुनने वाले दोनों पूरे ज्ञानी होते हैं। मैं कलियुग के पापों से ग्रसा हुआ महामूढ़ जड़ जीव भला उसको कैसे समझ सकता था।(३० ख)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #274e13; font-size: x-large;"><b>॥ चौपाई ॥</b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥(१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- तो भी गुरुजी ने जब बार-बार कथा कही, तब बुद्धि के अनुसार कुछ समझ में आई। वही अब मेरे द्वारा भाषा में रची जाएगी, जिससे मेरे मन को संतोष हो।(१)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥(२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- जैसा कुछ मुझमें बुद्धि और विवेक का बल है, मैं हृदय में हरि की प्रेरणा से उसी के अनुसार कहूँगा। मैं अपने संदेह, अज्ञान और भ्रम को हरने वाली कथा रचता हूँ, जो संसार रूपी नदी के पार करने के लिए नाव है।(२)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥(३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- रामकथा पण्डितों को विश्राम देने वाली, सब मनुष्यों को प्रसन्न करने वाली और कलियुग के पापों का नाश करने वाली है। रामकथा कलियुग रूपी साँप के लिए मोरनी है और विवेक रूपी अग्नि के प्रकट करने के लिए मंथन की जाने वाली लकड़ी है।(३)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि॥(४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- रामकथा कलियुग में सब मनोरथों को पूर्ण करने वाली कामधेनु गौ है और सज्जनों के लिए सुंदर संजीवनी जड़ी है। पृथ्वी पर यही अमृत की नदी है, जन्म-मरण रूपी भय का नाश करने वाली और भ्रम रूपी मेंढकों को खाने के लिए सर्पिणी है।(४)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">असुर सेन सम नरक निकंदिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">संत समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥(५)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- यह रामकथा असुरों की सेना के समान नरकों का नाश करने वाली और साधु रूप देवताओं के कुल का हित करने वाली दुर्गा है। यह संत-समाज रूपी क्षीर समुद्र के लिए लक्ष्मी जी के समान है और सम्पूर्ण विश्व का भार उठाने में अचल पृथ्वी के समान है।(५)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥(६)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- यम दूतों के मुख पर कालिख लगाने के लिए यह जगत में यमुना जी के समान है और जीवों को मुक्ति देने के लिए मानो काशी ही है। यह श्री रामजी को पवित्र तुलसी के समान प्रिय है और तुलसीदास के लिए हुलसी माता के समान हृदय से हित करने वाली है।(६)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥(७)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- यह रामकथा शिवजी को नर्मदाजी के समान प्यारी है, यह सब सिद्धियों की तथा सुख-सम्पत्ति की राशि है। सद्गुण रूपी देवताओं के उत्पन्न और पालन-पोषण करने के लिए माता अदिति के समान है। श्री रघुनाथजी की भक्ति और प्रेम की परम सीमा सी है।(७)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: red; font-size: x-large;"><b>॥ दोहा ॥</b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥(३१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- तुलसीदासजी कहते हैं कि रामकथा मंदाकिनी नदी है, निर्मल चित्त चित्रकूट है और सुंदर स्नेह ही वन है, जिसमें श्री सीतारामजी विहार करते हैं।(८)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #274e13; font-size: x-large;"><b>॥ चौपाई ॥</b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">रामचरित चिंतामति चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">जग मंगल गुनग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥(१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी का चरित्र सुंदर चिन्तामणि है और संतों की सुबुद्धि रूपी स्त्री का सुंदर श्रंगार है। श्री रामचन्द्रजी के गुण-समूह जगत् का कल्याण करने वाले और मुक्ति, धन, धर्म और परमधाम के देने वाले हैं।(१)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥(२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- ज्ञान, वैराग्य और योग के लिए सद्गुरु हैं और संसार रूपी भयंकर रोग का नाश करने के लिए देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमार के समान हैं। ये श्री सीतारामजी के प्रेम के उत्पन्न करने के लिए माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमों के बीज हैं।(२)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">समन पाप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के॥(३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- पाप, संताप और शोक का नाश करने वाले तथा इस लोक और परलोक के प्रिय पालन करने वाले हैं। विचार ज्ञान रूपी राजा के शूरवीर मंत्री और लोभ रूपी अपार समुद्र के सोखने के लिए अगस्त्य मुनि हैं।(३)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥(४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- भक्तों के मन रूपी वन में बसने वाले काम, क्रोध और कलियुग के पाप रूपी हाथियों को मारने के लिए सिंह के बच्चे हैं। शिवजी के पूज्य और प्रियतम अतिथि हैं और दरिद्रता रूपी दावानल के बुझाने के लिए कामना पूर्ण करने वाले मेघ हैं।(४)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥(५)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- विषय रूपी साँप का जहर उतारने के लिए मन्त्र और महामणि हैं। ये ललाट पर लिखे हुए कठिनता से मिटने वाले बुरे प्रारब्ध को मिटा देने वाले हैं। अज्ञान रूपी अन्धकार को हरण करने के लिए सूर्य किरणों के समान और सेवक रूपी धान के पालन करने में मेघ के समान हैं।(५)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से॥(६)</div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- मनोवांछित वस्तु देने में श्रेष्ठ कल्पवृक्ष के समान हैं और सेवा करने में हरि-हर के समान सुलभ और सुख देने वाले हैं। सुकवि रूपी शरद् ऋतु के मन रूपी आकाश को सुशोभित करने के लिए तारागण के समान और श्री रामजी के भक्तों के तो जीवन धन ही हैं।(६)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सेवक मन मानस मराल से। पावन गंग तरंग माल से॥(७)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- सम्पूर्ण पुण्यों के फल महान भोगों के समान हैं। जगत का छलरहित हित करने में साधु-संतों के समान हैं। सेवकों के मन रूपी मानसरोवर के लिए हंस के समान और पवित्र करने में गंगाजी की तरंगमालाओं के समान हैं।(७)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: red; font-size: x-large;"><b>॥ दोहा ॥</b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: magenta;">कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: magenta;">दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड॥(३२ क)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- श्री रामजी के गुणों के समूह कुमार्ग, कुतर्क, कुचाल और कलियुग के कपट, दम्भ और पाखण्ड को जलाने के लिए वैसे ही हैं, जैसे ईंधन के लिए प्रचण्ड अग्नि।(३२ क)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥(३२ ख)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- रामचरित्र पूर्णिमा के चन्द्रमा की किरणों के समान सभी को सुख देने वाले हैं, परन्तु सज्जन रूपी कुमुदिनी और चकोर के चित्त के लिए तो विशेष हितकारी और महान लाभदायक हैं।(३२ ख)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #274e13; font-size: x-large;"><b>॥ चौपाई ॥</b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबंध बिचित्र बनाई॥(१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- जिस प्रकार श्री पार्वतीजी ने श्री शिवजी से प्रश्न किया और जिस प्रकार से श्री शिवजी ने विस्तार से उसका उत्तर कहा, वह सब कारण मैं विचित्र कथा की रचना करके गाकर कहूँगा।(१)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">जेहिं यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करै सुनि सोई॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥(२)</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥(३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- जिसने यह कथा पहले न सुनी हो, वह इसे सुनकर आश्चर्य न करे। जो ज्ञानी इस विचित्र कथा को सुनते हैं, वे यह जानकर आश्चर्य नहीं करते कि संसार में रामकथा की कोई सीमा नहीं है। उनके मन में ऐसा विश्वास रहता है नाना प्रकार से श्री रामचन्द्रजी के अवतार हुए हैं और सौ करोड़ तथा अपार रामायण हैं।(२.३)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सादर रति मानी॥(४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- कल्पभेद के अनुसार श्री हरि के सुंदर चरित्रों को मुनीश्वरों ने अनेकों प्रकार से गया है। हृदय में ऐसा विचार कर संदेह न कीजिए और आदर सहित प्रेम से इस कथा को सुनिए।(४)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: red; font-size: x-large;"><b>॥ दोहा ॥</b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार॥(३३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी अनन्त हैं, उनके गुण भी अनन्त हैं और उनकी कथाओं का विस्तार भी असीम है। अतएव जिनके विचार निर्मल हैं, वे इस कथा को सुनकर आश्चर्य नहीं मानेंगे।(३३)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #274e13; font-size: x-large;"><b>॥ चौपाई ॥</b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥(१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- इस प्रकार सब संदेहों को दूर करके और श्री गुरुजी के चरणकमलों की रज को सिर पर धारण करके मैं पुनः हाथ जोड़कर सबकी विनती करता हूँ, जिससे कथा की रचना में कोई दोष स्पर्श न करने पावे।(१)</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #38761d;">॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</span></b></div>
</div>
</div>
Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5930906140249394012.post-31425001361834958332013-07-31T21:03:00.000+05:302014-04-28T18:46:44.192+05:30॥ मंगलाचरण - अयोध्याकाण्ड ॥<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhQ1Fr424VYTg674XmJgKg5ddPwHzrszk_-JY99L2bLEvG_oK6BiORa7j189iGM3SyCDpugh94uXXNdJRsI8_7ZabRnXEYiV01ojzBNMul7ZF0EgZt313Bvomim_KkFaDAmwVOKCqRQfaA/s1600/Ram+(1).JPG" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhQ1Fr424VYTg674XmJgKg5ddPwHzrszk_-JY99L2bLEvG_oK6BiORa7j189iGM3SyCDpugh94uXXNdJRsI8_7ZabRnXEYiV01ojzBNMul7ZF0EgZt313Bvomim_KkFaDAmwVOKCqRQfaA/s1600/Ram+(1).JPG" height="480" width="640" /></a></div>
<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #b45f06; font-size: x-large;">॥ श्लोक ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">यस्यांके च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्री शंकरः पातु माम्॥ (१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- जिनकी गोद में हिमायल की पुत्री पार्वती जी, मस्तक पर गंगा जी, ललाट पर दूज का चन्द्रमा, कंठ में हलाहल विष और वक्षः स्थल पर सर्पराज शेष जी सुशोभित हैं, जो भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ, सर्वेश्वर, भक्तों के पापहर्ता, सर्वव्यापक, कल्याण स्वरूप, चन्द्रमा के समान श्वेत वर्ण श्रीशंकर जी सदा मेरी रक्षा करें। (१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मंजुलमंगलप्रदा॥ (२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- राजा रघु के कुल को आनंद देने वाले श्रीरामचन्द्र जी के मुखारविंद की जो शोभा राज्याभिषेक की बात सुनकर न तो प्रसन्नता को प्राप्त हुई और न वनवास के दुःख से मलिन हुई, ऎसे मुखकमल की छबि मेरे लिए सदैव मंगलकारी हो। (२)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नीलाम्बुजश्यामलकोमलांग सीतासमारोपितवामभागम्।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥ (३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- नीले कमल के समान श्याम और अति कोमल जिनके अंग हैं, श्रीसीता जी जिनके वाम भाग में विराजमान हैं और जिन्होने हाथों में अमोघ बाण और सुंदर धनुष धारण किया हुआ है, उन रघुवंश के स्वामी श्रीरामचन्द्र जी को मैं प्रणाम करता हूँ। (३)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: red; font-size: x-large;">॥ दोहा ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">श्री गुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥ (१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- श्रीगुरु जी के चरण कमलों की रज से अपने मन रूपी दर्पण को साफ करके मैं श्रीरघुनाथ जी के उस निर्मल यश का वर्णन करता हूँ, जो चारों फलों धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को देने वाले हैं। (१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #38761d; font-size: x-large;">॥चौपाई ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥ (१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आये हैं, तब से अयोध्या में नित्य नए मंगल गान हो रहे हैं। चौदह भवन रूपी बड़े भारी खण्ड शिलाओं पर पवित्र बादल आनन्द रूपी जल की बर्षा कर रहे हैं। (१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥ (२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- ऋद्धि-सिद्धि और सम्पत्ति रूपी सुहावनी नदियाँ उमड़-उमड़ कर अयोध्या रूपी समुद्र में आ मिलीं हैं। नगर के स्त्री-पुरुष शुभ वर्ण के मणियों के समूह के समान हैं, जो सभी प्रकार से पवित्र, अमूल्य और सुंदर हैं। (२)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ (३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- अयोध्या नगरी का ऐश्वर्य का वर्णान ही नहीं किया जा सकता है, ऐसा जान पड़ता है, मानो ब्रह्मा जी की कारीगरी बस इतनी ही है। श्रीरामचन्द्र जी के मुखचन्द्र की छटा देखकर सभी नगरवासी हर प्रकार से सुख की अनुभूति कर रहे हैं। (३)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥ (४)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- सब माताएँ और सखी-सहेलियाँ अपनी मनोरथ रूपी बेल को फलित होती हुई देखकर आनंदित हो रही हैं। श्रीरामचन्द्र जी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को देख-सुनकर राजा दशरथ जी अत्यधिक आनंदित हो रहे हैं। (४)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #274e13;">॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</span></div>
</div>
Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5930906140249394012.post-70368224648852584172012-12-31T21:21:00.000+05:302014-04-28T18:47:15.162+05:30॥ मंगलाचरण - अरण्यकाण्ड ॥<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiq7RPTKJF9qhhssFYLI05cabsqy5-VAFfK7_54piOqHFRIG7jpinNOi7u_ymb6zxRixkH_ZIb12rdYA_ZhYijmzl6Qdobock_iSAtsfnOKG5yzoHwwbVuE1ZNH1c7AEhApAtPi7uDxQ5I/s1600/Ram+%25282%2529.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiq7RPTKJF9qhhssFYLI05cabsqy5-VAFfK7_54piOqHFRIG7jpinNOi7u_ymb6zxRixkH_ZIb12rdYA_ZhYijmzl6Qdobock_iSAtsfnOKG5yzoHwwbVuE1ZNH1c7AEhApAtPi7uDxQ5I/s1600/Ram+%25282%2529.JPG" height="480" width="640" /></a></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #b45f06; font-size: x-large;">॥ श्लोक ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शंकरं</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">वंदे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्री रामभूपप्रियम्॥ (१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- जो धर्म रूपी वृक्ष की ज़ड़ के समान हैं, जो विवेक रूपी समुद्र को आनंद देने वाले पूर्ण चन्द्र के समान हैं, जो वैराग्य रूपी कमल को विकसित करने वाले सूर्य के समान हैं, जो पाप रूपी घोर अंधकार को मिटाने वाले हैं, जो तीनों तापों को हरने वाले हैं। जो मोह रूपी बादलों के समूह को छिन्न-भिन्न करने वाले हैं, जो आकाश में पवन के समान हैं, जो ब्रहमा जी के पुत्र और समस्त कलंक को मिटाने वाले हैं, जो महाराज श्रीरामचन्द्र जी के अति प्रिय हैं, उन श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ। (१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुंदरं</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे॥ (२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- जिनका शरीर जल पूरित मेघों के समान सुंदर आनंदघन सदृश्य है, जो सुंदर पीत वस्त्र धारण किए हुए हैं, जिनके हाथों में धनुष-बाण और कमर में तुणीर सुशोभित है। जिनके कमल के समान विशाल नेत्र हैं, जिनके मस्तक पर जटा सुशोभित हैं, जो सीता जी और लक्ष्मण जी के साथ वन में भ्रमण कर रहें हैं ऎसे श्रीरामचन्द्र जी का मैं निरन्तर स्मरण करता हूँ। (२)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #660000; font-size: x-large;">॥ सोरठा ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति॥ (१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- शंकर जी कहते हैं:- हे उमा! श्रीराम जी के गुण अत्यन्त दिव्य हैं, इन गुणों को जानकर विद्वान और मुनिजन संसार से वैराग्य धारण करते हैं, लेकिन जो मनुष्य भगवान से विमुख होते हैं और जो मनुष्य धर्म का आचरण नहीं करते हैं, ऎसे मूढ़ अज्ञानीजन इन गुणों को सुनकर मोहग्रस्त हो जाते हैं। (१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #38761d; font-size: x-large;">॥ चौपाई ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन॥ (१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- अयोध्या नगर वासियों और भरत जी के अनुपम प्रेम का मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार वर्णन किया है। अब मैं देवताओं, मनुष्यों और मुनियों के मन में वास करने वाले प्रभु श्रीरामचन्द्र जी के अत्यन्त पवित्र चरित्र का गुणगान करता हूँ, जो कि वन में नर लीला कर रहे हैं। (१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #274e13;">॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</span></div>
</div>
Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5930906140249394012.post-62425084947801815332012-07-31T21:42:00.000+05:302014-04-28T18:47:47.011+05:30॥ मंगलाचरण - किष्किन्धाकाण्ड ॥<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijfU5hOHpEtfCYWA8kLbAjbgtolUuQRIrMTfoUeO-UiWus5RBCvN8HN1tBXM_JxyK4YjR6vf2yaK5mQllcvft6AdrWSE6kvazKEtbwzgy6OHHeXHj5mlKP9k5gaBzAS8oYecrDOzJMvAc/s1600/Ram+%25284%2529.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijfU5hOHpEtfCYWA8kLbAjbgtolUuQRIrMTfoUeO-UiWus5RBCvN8HN1tBXM_JxyK4YjR6vf2yaK5mQllcvft6AdrWSE6kvazKEtbwzgy6OHHeXHj5mlKP9k5gaBzAS8oYecrDOzJMvAc/s1600/Ram+%25284%2529.JPG" height="480" width="640" /></a></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #b45f06; font-size: x-large;">॥ श्लोक ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौ</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">शोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौ हितौ</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः॥ (१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- जिनका नीले कमल के समान श्यामवर्ण और कुन्द के फूलों के समान गौरवर्ण है, जो अत्यंत बलवान् और विज्ञान के धाम हैं, जिनकी छबि अति शोभायमान है, जो श्रेष्ठ धनुर्धर हैं, जो गौ एवं ब्राहमणो के प्रिय और वेद श्रुतियों के वन्दनीय हैं, जो अपनी आत्म-माया से मनुष्य रूप धारण किए हुए रघुकुल में श्रेष्ठ हैं, जो समस्त धर्मों के हितकारी हैं और जो श्रीसीता जी की खोज में भ्रमण कर रहें हैं ऎसे श्रीराम जी और श्रीलक्ष्मण जी निश्चय ही हमें अपनी भक्ति प्रदान करेंगे। (१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययं</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम्॥ (२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- धन्य हैं वह लोग जो वेद रूपी समुद्र से उत्पन्न, कलियुग के पापों को सर्वथा नष्ट कर देने वाले, अविनाशी श्रीशंकर जी के सुंदर मुख पर चंद्रमा के समान सदा शोभायमान, जन्म-मृत्यु रूपी भवरोग की औषधि, संसार को सुख प्रदान करने वाले और श्रीजानकी जी के जीवन स्वरूप श्रीराम नाम रूपी अमृत का निरंतर रसपान करते रहते हैं। (२)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: purple; font-size: x-large;">॥ सोरठा ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खान अघ हानि कर।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न ॥ (१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- मुक्ति की जन्मभूमि, ज्ञान की खान और समस्त पापों का नाश करने वाली उस काशी का ध्यान क्यों न किया जाये? जहाँ शकंर जी पार्वती के संग सदैव विराजते हैं। (१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस॥ (२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- जिस भीषण हलाहल विष से सभी देवतागण जल रहे थे उस विष का जिन्होंने स्वयं पान कर लिया था, अरे मूर्ख मन! तू उन शंकर जी को क्यों नहीं भजता है? उनके समान अन्य कौन कृपालु है? (२)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #274e13;">॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</span></div>
</div>
Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5930906140249394012.post-75910167383110284002011-12-31T21:44:00.000+05:302014-04-28T18:48:03.563+05:30॥ मंगलाचरण - सुन्दरकाण्ड ॥<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZZLgS5dkY4yKSyKg8_TEaZkFm7guyClamh6bi3fdHexCsFhCa_KVTI-iQjbb06KsVE96jmiEAWQANZLnsptnJKWf238Q7Y1HhISZANqhyphenhyphensIc-LPXqKi4KlO7S9a-J-KVcPW3sfzFD-gk/s1600/Ram+%25285%2529.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZZLgS5dkY4yKSyKg8_TEaZkFm7guyClamh6bi3fdHexCsFhCa_KVTI-iQjbb06KsVE96jmiEAWQANZLnsptnJKWf238Q7Y1HhISZANqhyphenhyphensIc-LPXqKi4KlO7S9a-J-KVcPW3sfzFD-gk/s1600/Ram+%25285%2529.jpg" height="480" width="640" /></a></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #b45f06; font-size: x-large;">॥ श्लोक ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्॥ (१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- शान्त, सनातन, अप्रमेय, निष्पाप, मोक्ष और परम शान्ति प्रदान करने वाले, ब्रह्मा जी, शंकर जी और शेषनाग जी से निरंतर सेवित, वेदों के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि श्रीराम कहलाने वाले जगत को धारण करने वाले जगदीश्वर की मैं वंदना करता हूँ (१)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥ (२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- हे रघुनाथजी! आप सभी के हृदय में आत्मा रूप में स्थित ही हैं, फिर भी मैं सत्य कहता हूँ कि मेरे हृदय में अन्य कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुल श्रेष्ठ! आप मुझे केवल आप पर आश्रित अपनी भक्ति प्रदान कीजिये और मेरे मन को काम आदि दोषों से मुक्त कीजिये। (२)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥ (३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- अतुल बल के धाम, सुमेरु के पर्वत के समान कान्ति से युक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन को ध्वंस करने के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्रीरघुनाथ जी के प्रिय भक्त पवन के पुत्र श्रीहनुमान् जी को मैं नमन करता हूँ। (३)</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #274e13;">॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</span></div>
</div>
Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5930906140249394012.post-73725484518949154822011-07-31T21:49:00.000+05:302014-04-28T18:48:27.038+05:30॥ मंगलाचरण - लंकाकाण्ड ॥<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj-xdC7qeJPnCmTUZSrUNPKy820THIV_3PMQ7R6s5aWXK4L-O9ct2uUU7jIIy3-at0kipB2lS-dm6eWVfvdbuZEiHhKHjqBjxB93OJYqq4OAOMCfBvyXSr9X57lwOEwbQ3rWQp0hMOW7SI/s1600/Ram+%25286%2529.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj-xdC7qeJPnCmTUZSrUNPKy820THIV_3PMQ7R6s5aWXK4L-O9ct2uUU7jIIy3-at0kipB2lS-dm6eWVfvdbuZEiHhKHjqBjxB93OJYqq4OAOMCfBvyXSr9X57lwOEwbQ3rWQp0hMOW7SI/s1600/Ram+%25286%2529.jpg" height="480" width="640" /></a></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #b45f06; font-size: x-large;"><span style="background-color: white;">॥ श्लोक ॥</span></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्॥ (१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- कामदेव के शत्रु शिव जी के द्वारा सेवित, जन्म-मृत्यु के भय को हरने वाले, काल रूपी मतवाले हाथी के लिए शेर के समान, योगियों के ईश्वर, ज्ञान के द्वारा जानने योग्य, गुणों की खान, अजेय, निर्गुण, निर्विकार, माया से परे, देवताओं के स्वामी, दुष्टों के वध को आतुर, ब्राहमणों के एकमात्र रक्षक, जल प्लावित मेघ के समान श्यामवर्ण, कमल के समान नेत्रों वाले, पृथ्वी के स्वामी के रूप में परमात्म स्वरूप श्रीरामचन्द्र जी की मैं वंदना करता हूँ। (१)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">शंखेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">कालव्यालकरालभूषणधरं गंगाशशांकप्रियम्।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शंकरम्॥ (२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- शंख और चंद्रमा के समान अत्यंत सुंदर शरीर वाले, शेर की खाल के वस्त्र धारण करने वाले, काल के समान भयानक सर्पों का भूषण धारण करने वाले, गंगा और चंद्रमा के प्रेमी, काशी के स्वामी, कलियुग के पापों का नाश करने वाले, कल्पवृक्ष के समान कल्याण करने वाले, गुणों के खान और कामदेव को भस्म करने वाले, पार्वती के पति परम वन्दनीय श्रीशंकर जी को मैं नमन करता हूँ। (२)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">खलानां दण्डकृद्योऽसौ शंकरः शं तनोतु मे॥ (३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- जो संत पुरुषों को अत्यंत दुर्लभ कैवल्य मुक्ति देने वाले हैं और जो दुष्टों का संहार करने वाले हैं, ऎसे कल्याणकारी श्रीशंकर जी मेरा कल्याण करें। (३)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: red; font-size: x-large;">॥ दोहा ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चंड।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: magenta;">भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदंड॥ (१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- लव, निमेष, परमाणु, वर्ष, युग और कल्प जिनके प्रचण्ड बाण हैं और काल जिनका धनुष है, हे मन! तू उन श्रीराम जी का निरन्तर स्मरण क्यों नहीं करता है? (१)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #274e13;">॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</span></div>
</div>
Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5930906140249394012.post-55568959775101848952010-12-31T21:54:00.000+05:302014-04-28T18:48:46.298+05:30॥ मंगलाचरण - उत्तरकाण्ड ॥<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMeFFboMZ5JCOjtltDzk4eqR98uCSonpNKxUi4CukGhhkW0hKye0p-S6uqcRXMyfFT0UKR7k-Unq3L0G1OPd7g96WMRHwxPjcbfilw-QNhhXGTUnQjYSdLb0toT0agf6yGazH9phZ4pOg/s1600/Ram+%25287%2529.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMeFFboMZ5JCOjtltDzk4eqR98uCSonpNKxUi4CukGhhkW0hKye0p-S6uqcRXMyfFT0UKR7k-Unq3L0G1OPd7g96WMRHwxPjcbfilw-QNhhXGTUnQjYSdLb0toT0agf6yGazH9phZ4pOg/s1600/Ram+%25287%2529.jpg" height="480" width="640" /></a></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #b45f06; font-size: x-large;">॥ श्लोक ॥</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्। </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्॥ (१)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- मोर के कण्ठ की आभा के समान नीलवर्ण वाले, देवताओं में श्रेष्ठ ब्राह्मण भृगु जी के चरणकमल के चिह्न से सुशोभित, शोभायमान पीताम्बर धारण करने वाले, कमल के समान नेत्रों वाले, सदैव प्रसन्न मुद्रा में रहने वाले, हाथों में धनुष और बाण धारण करने वाले, वानर सेना से युक्त भाई लक्ष्मण जी से सेवित, स्तुति किए जाने योग्य, श्रीजानकी जी के पति, रघुकुल श्रेष्ठ, पुष्पक विमान पर विराजित श्रीरामचंद्र जी को मैं साष्टांग नमन करता हूँ। (१)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">कोसलेन्द्रपदकन्जमंजुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृंगसंगिनौ॥ (२)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- कोसलपुरी के स्वामी श्रीरामचंद्र जी के सुंदर सुकोमल चरणकमल जिनकी ब्रह्माजी और शिवजी वन्दना करते हैं, श्रीजानकी जी के करकमलों द्वारा पूज्यनीय और चिन्तन करने वालों का मन रूपी भ्रमर सदा उन चरणकमलों में बसा रहता है। (२)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">कुन्दइन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">कारुणीककलकन्जलोचनं नौमि शंकरमनंगमोचनम्॥ (३)</span></div>
<div style="text-align: left;">
भावार्थ:- कुन्द के फूल, चंद्रमा और शंख के समान सुंदर गौरवर्ण, जगज्जननी पार्वती जी के पति, मनवान्छित फल को देने वाले, दीन दुखियों पर सदा दया करने वाले, सुंदर कमल के समान नेत्र वाले, कामदेव से मुक्त करने वाले कल्याणकारी श्रीशंकर जी को मैं नमन करता हूँ। (३)</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #274e13;">॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</span></div>
</div>
Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.com